SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार अनुशीलन अपना-अपना स्वरूपास्तित्व भिन्न-भिन्न है; इसलिए स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा उनमें अनेकत्व (भिन्नत्व) है; फिर भी सभी द्रव्यों में समानरूप से पाये जानेवाले द्रव्यत्व की अपेक्षा सभी द्रव्यों में एकत्व (अभिन्नत्व) है। जब इस एकत्व अर्थात् सादृश्यास्तित्व को मुख्य करते हैं तो अनेकत्व (स्वरूपास्तित्व) गौण हो जाता है। ३८ इसप्रकार जब सामान्य सत्पने की मुख्यता से लक्ष में लेने पर सभी द्रव्यों के एकत्व की मुख्यता होने से अनेकत्व गौण हो जाता है; तब भी वह अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है। आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को सिद्धभगवान, सेना और वन के उदाहरण से इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि जिसप्रकार मुक्तात्मा कहने से सभी सिद्धों का ग्रहण हो जाता है; सेना कहने पर घोड़ा, हाथी आदि पदार्थों का और वन कहने पर नीम, आम आदि वृक्षों का ग्रहण हो जाता है; उसीप्रकार 'सभी सत् हैं' - ऐसा कहने पर संग्रह नय से सभी पदार्थों का ग्रहण हो जाता है, सादृश्यास्तित्व नामक महासत्ता का ग्रहण हो जाता है। कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में इस गाथा के भाव को १ मनहरण और ३ दोहों - इसप्रकार ४ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जिनमें से तीन दोहे इसप्रकार हैं (दोहा) सहज स्वरूपास्तित्व करि, जुदे - जुदे सब दर्व । निज-निज गुन लच्छन धेरै, है विचित्र गति पर्व ।। अरु सादृश्यास्त्वि करि, सब थिर थपन अबाध । सत लच्छन के गहन तैं, यही एक निरुपाध ।। तिहूँकाल में जास को, बाधा लगै न कोय । सोई सतलच्छन प्रबल, सब दरवनि में होय ।। प्रत्येक द्रव्य में सहजता से प्राप्त स्वरूपास्तित्व अर्थात् अवान्तरसत्ता गाथा - ९७ अपेक्षा से सभी द्रव्य भिन्न-भिन्न ही हैं; क्योंकि वे सभी द्रव्य अपनेअपने लक्षणों को धारण किये हैं, उनसे वे पहिचाने जाते हैं। यह जगत का विचित्र स्वरूप है। ३९ सादृश्यास्तित्व अर्थात् महासत्ता की अपेक्षा सभी स्थिर हैं, अबाधित हैं और सत् लक्षण से ग्रहण किये जाते हैं। यह एक निरुपाधि सत्य है । जिसको तीनकाल में कहीं कोई बाधा नहीं लगती ऐसा प्रबल सत् लक्षण सभी द्रव्यों में होता है। इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए पण्डित देवीदासजी ने १ अडिल्ल, २ चौपाई और २ दोहे लिखे हैं; जो मूलत: पठनीय हैं । नमूने के रूप में दोनों दोहे इसप्रकार हैं ( दोहा ) आम-नीम आदिक सुज्यौं तरवर बहुत प्रकार । सो पुनि वृक्ष विचार कर एक रूप निरधार ।। ९ ।। ज्यों स्वरूप अस्तित्व करि वस्तु प्रकार अनेक । दीसे सो साद्रस्यता सौं सु प्रगट विधि एक ।।१०।। जिसप्रकार आम, नीम आदि के रूप में वृक्ष अनेक प्रकार के होते हैं। यदि उनके बारे में एक वृक्षपने की अपेक्षा विचार किया जाय तो सभी एकरूप ही हैं; उसीप्रकार स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा वस्तुएँ अनेक प्रकार की हैं। यदि उनके बारे में सादृश्यास्तित्व की अपेक्षा विचार करें तो सभी एकरूप ही हैं। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "सर्व पदार्थों को सर्व प्रकार से एक अस्तित्व भाव द्वारा जानने पर कोई मिथ्या कल्पना नहीं होती। जैसे हैं, वैसा ज्ञान जानता है। किसी की निगोद पर्याय तो किसी की पूर्ण सिद्ध पर्याय, कोई साधक तो कोई विराधक आदि जैसे हैं वैसे हैं। " १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ- ११७
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy