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________________ गाथा-९५ प्रवचनसार अनुशीलन प्राप्त होकर उनकी द्रव्यसत्ता को बताते हैं, इसे जानने में कोई दुख नहीं है; इसके बदले जो उसमें कर्तापने की स्थापना करता है, वह परपदार्थों को ज्ञेय नहीं मानता; अपितु मैंने इतनों का किया-कराया है - ऐसा मान कर ममता का बोझ ढोता है; किन्तु यदि वस्तुस्वरूप का विचार करे तो यह ममता घट सकती है। स्वयं ध्रुव सत्तावाला है - ऐसा जाने तो किसी का बोझा नहीं लगे; त्रिकाली की रुचि करे तो विकार की अल्पता लगे और विकार की रुचि दूर होकर त्रिकाली स्वरूप में सुख भासित हो।" इसप्रकार हम देखते हैं कि यहाँ प्रत्येक द्रव्य के अस्तित्व को ही द्रव्य का लक्षण माना गया है और उक्त अस्तित्व में गुण-पर्याय तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भी समाहित हो जाते हैं। इस बात को भी स्पष्ट कर दिया गया है कि द्रव्य या उसके गुणों में जो उत्पादादिरूप परिणमन होता है, परिवर्तन होता है; वह अस्तित्वस्वभाव को छोड़े बिना ही होता है। टीका में अस्तित्व के भेद स्वरूपास्तित्व और सादृश्यास्तित्व की भी चर्चा है और सामान्य-विशेष गुण भी बताये गये हैं। वस्त्र के उदाहरण के माध्यम से यह भी समझाया गया है कि अस्तित्व, गुण-पर्याय, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के साथ द्रव्य का स्वरूप भेद नहीं है। यद्यपि उनमें लक्ष्य-लक्षणभेद है; तथापि स्वरूपभेद नहीं है। जो लोग स्वरूप और लक्षण को एक ही मान लेते हैं; उन्हें आचार्य अमृतचन्द्र के इस कथन का विशेष ध्यान देना चाहिए कि लक्षणभेद तो है, पर स्वरूपभेद नहीं है । यद्यपि स्वरूप और लक्षण में अन्तर है; तथापि ये उत्पादादि व गुण-पर्याय द्रव्य के स्वरूप भी हैं और लक्षण भी। अस्तित्व सभी का एक है; अत: स्वरूप भेद नहीं है; पर सभी के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं; इसलिए लक्षण भेद है। उक्त सभी के लक्षण टीका में दिये ही गये हैं; अत: यहाँ विशेष कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-९१-९२ महासत्ता सादृश्यास्तित्व का ही दसरा नाम है एवं अवान्तरसत्ता स्वरूपास्तित्व का दूसरा नाम है। अपने स्वभाव को छोड़े बिना - इस पद का अर्थ यह है कि वस्तु स्वरूपास्तित्व को छोड़े बिना सादृश्यास्तित्व में सम्मिलित है। मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ कि आप दिगम्बर हैं या जैन हैं ? हम जैन भी हैं और दिगम्बर भी हैं; क्योंकि दिगम्बर जैन हैं। दिगम्बर और जैन - दोनों का एक साथ होने में कोई विरोध नहीं है। ___इसीप्रकार स्वरूपास्तित्व को छोड़े बिना हम सादृश्यास्तित्व में शामिल हैं। इसप्रकार हम अवान्तरसत्ता और महासत्ता - दोनों से समृद्ध हैं; क्योंकि हम ज्ञानानन्दस्वभावी हैं। इसमें ज्ञानानन्दस्वभाव हमारी अवान्तरसत्ता है और हैं' अर्थात् अस्तित्व महासत्ता है। __ हम चेतन होकर भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से संयुक्त और गुणपर्याय से युक्त द्रव्य हैं। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त और गुण-पर्यायों से सहित होना हमारी महासत्ता है और ज्ञानानन्दस्वभावी चेतन होना हमारी अवान्तर सत्ता है। महासत्ता से हम सबसे जुड़े हैं और अवान्तरसत्ता की वजह से हमारा अस्तित्व स्वतंत्र है। इसप्रकार हमने स्वरूपास्तित्व को छोड़ा नहीं है और हम सादृश्यास्तित्व में शामिल हैं। हम ऐसी महासत्ता के अंश हैं, जिसमें स्वरूपास्तित्व को छोड़ना जरूरी नहीं है। मैं अपने स्वरूपास्तित्व में भी शामिल हूँ एवं सादृश्यास्तित्व में भी शामिल हूँ। इसप्रकार सभी जीव द्रव्य सादृश्यास्तित्व एवं स्वरूपास्तित्व से युक्त हैं। सभी का अस्तित्व समान है। आप भी अनंतगुणवाले हो एवं मैं भी अनंतगुणवाला हूँ, पुद्गल भी अनंतगुणवाला है। आप भी गुणपर्याय से युक्त हैं एवं मैं भी गुणपर्याय से युक्त हूँ। महासत्ता की अपेक्षा हम, तुमसभी एक हैं, एक से हैं; अत: इस अस्तित्व का नाम सादृश्यास्तित्व है। सादृश्य अर्थात् एक-सा होना । एक से होने में भी जगत में एक हैं' - ऐसा व्यवहार किया जाता है। हम सभी जैन एक हैं। हममें भी जैनत्व
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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