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________________ २६ प्रवचनसार अनुशीलन वह स्वरूप से ही वैसा है; उसीप्रकार वही द्रव्य आयतविशेषस्वरूप पर्यायों से लक्षित होता है; परन्तु उसका उन पर्यायों के साथ स्वरूप भेद नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है। " आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में तत्त्वप्रदीपिका में दिये गये वस्त्र का उदाहरण को तो संक्षेप में देते ही हैं; साथ में शुद्धात्मा का भी उदाहरण देते हुए तत्त्वप्रदीपिका के समान ही इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी भी प्रवचनसार परमागम में गाथा और उसकी तत्त्वप्रदीपिका टीका में प्रस्तुत समस्त विषयवस्तु को पाँच छन्दों में सांगोपांग प्रस्तुत करते हैं; जो मूलतः पठनीय हैं। पण्डित देवीदासजी इस गाथा का भाव एक पद्य में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (सवैया तेईसा) जो न तजै अपनै निज पोरिष कौं नित एक स्वरूप रहेगी। जो जग मैं उपजै विनसै सु तथा पुनि ध्रौव्य सुभाव गहैगौ ।। जो गुनवंत अनंत सही परजायनि के सु प्रवाह बहैगौ । लक्षिन ये लखिये जिहि मैं तिहि सौं सु आचारज द्रव्य कहैगौ ॥४॥ जो अपने पुरुषार्थ को नहीं छोड़ते और अपने स्वरूप में ही रहते हैं और इस जगत में जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को ग्रहण किये रहते हैं, अनन्त गुणवाले हैं और अनन्तानंत पर्यायों में बहते रहते हैं, परिणमित होते रहते हैं; जिनमें उक्त लक्षण पाये जाते हैं, उन्हें आचार्यदेव द्रव्य कहते हैं । आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “गाथा ९४ में जिस द्रव्य-गुण-पर्याय के पिण्ड को आत्मस्वभाव कहा था । उस स्वभाव की यहाँ बात नहीं है। यहाँ पर सत्ता गुण को आत्मस्वभाव कहा है। उत्पाद, व्यय, ध्रुव, अस्तित्व से पृथक् नहीं हैं। गाथा - ९५ २७ गुण और पर्यायें भी अस्तित्व से पृथक् नहीं हैं - ऐसा इस गाथा में कहना है। यहाँ द्रव्य को पहचानने के दो लक्षण कहे हैं १. उत्पाद - व्यय और ध्रुव तथा २. गुण और पर्याय । गुण, ध्रुव में आ जाते हैं और पर्यायें उत्पाद-व्यय में आ जाती हैं; फिर भी विशेष विस्तार और स्पष्टीकरण के लिए दोनों लक्षणों को पृथक्पृथक् कहा है। इस गाथा में अभेद द्रव्य में भेद करके लक्षण से समझाया है। उत्पाद, व्यय पर्याय है और उनसे द्रव्य लक्षित होता है। ध्रुव वह गुण है और उससे द्रव्य लक्षित होता है। इसप्रकार छह लक्षण- अस्तिस्वभाव, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, गुण और पर्याय से प्रत्येक द्रव्य लक्षित होता है। तत्त्वार्थसूत्र में - उपयोगरूप पर्याय से जीव को लक्षित किया है। द्रव्यानुयोग में त्रिकाली एकरूप रहनेवाले उपयोग से जीव को लक्षित किया है। प्रवचनसार में अस्तित्व स्वभाव से और उत्पाद-व्यय-ध्रुव; गुण-पर्याय ये तथा छह पृथक्-पृथक् लक्षणों को कहकर एक-एक लक्षण में जीव को लक्षित करते हैं। इसलिए जहाँ जैसा है, वैसा समझना चाहिए। प्रत्येक आत्मा और रजकण (पुद्गल परमाणु) उनकी वर्तमान अवस्था और त्रिकाली गुणों द्वारा ही पहिचाने जाते हैं। प्रत्येक की निरन्तर प्रवाहित होनेवाली अवस्था उस समय उसके आधार से होती है; किन्तु वह किसी अन्य के आधार से हुई है - ऐसा मानना बहुत बड़ा भ्रम है। जैसे नदी में पानी बहता जाता है, उसे देखने में भार नहीं लगता तथा उससे ममता नहीं होती; किन्तु यदि घड़ा भरकर सिर पर रखे तो भार लगता है; वैसे ही जगत के पदार्थ अपनी-अपनी शक्ति द्वारा परिवर्तन को १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-६६ ३. वही, पृष्ठ-७३ २. वही, पृष्ठ- ६६-६७ ४. वही, पृष्ठ-७७-७८
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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