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________________ २५६ प्रवचनसार अनुशीलन का संयोग होता है। उक्त देह में पुद्गलद्रव्य से रचित संस्थान, संहनन आदि बहुत भेद होते हैं। जिसप्रकार एक प्रकार की अग्नि अनेकप्रकार के ईंधन के संयोग से अनेकप्रकार की दिखाई देती है; उसीप्रकार चेतन भी निश्चय से एकप्रकार का होने पर भी व्यवहार से अनेकप्रकार का दिखाई देता है। (मत्तगयन्द) जे भवि भेदविज्ञान धरै, सब दर्वनि को जुत भेद सुजाने । जे अपनो सद्भाव धरै, निज भाव वि थिर हैं परधान ।। द्रव्य गुनौ परजायमई, तिनको धुव वै उतपाद पिछाने । सो परदर्व विर्षे कबहूँ नहि, मोहित होत सुबुद्धिनिधान ।।१९।। भेदविज्ञान के धारी जो जीव सब द्रव्यों को भेद सहित जानते हैं, अपने अस्तित्व को धारण किये हैं और प्रधानता से निजभाव में स्थिर हैं; जो द्रव्य, गुण और पर्यायमयी हैं और उनके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को पहिचानते हैं; वे सुबुद्धि के निधान परद्रव्यों में कभी भी मोहित नहीं होते। (मनहरण कवित्त ) जानैकाललब्धपाय दर्शमोह को खिपाय, उपशमवाय वा सुश्रद्धा यों लहाही है। मेरो चिदानंद को दरव गुन परजाय, उतपाद वय धुव सदा मेरे पाहीं है।। और परदर्व सर्व निज निज सत्ता ही में, कोऊ दर्व काहू को सुभाव न गहाही है। तातें जो प्रगट यह देह खेह-खान दीसै, सो तो मेरा रूप कहूँनाहीं नाहीं नाहीं है ।।२०।। जिस जीव ने काललब्धि पाकर दर्शनमोह को खिपाकर, उपशमभाव व सुश्रद्धा को प्राप्त किया है; वह विचारता है कि मेरे चिदानन्द आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्यायें और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सदा मेरे पास ही रहते हैं। इसीप्रकार सभी परद्रव्य भी अपनी-अपनी सत्ता में रहते हैं; कोई गाथा-१५२-१५३ २५७ द्रव्य किसी द्रव्य का स्वभाव ग्रहण नहीं करता। इसलिए प्रगट मल की खान जो यह देह दिखाई देती है; वह तो मुझरूप कभी भी नहीं हो सकती, नहीं हो सकती; नहीं हो सकती। पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं के भाव को ४ दोहों में प्रस्तुत करते हैं; जिनमें से २ दोहे इसप्रकार हैं (दोहा) सहजरूप आतम दसा आदि अंत इक सूत । अपनै निज अस्तित्वकरि रहित चतुर्गति तूत ।।१०५।। नर नारकादिक हैं सु जे गति चार दुखदाय । कही जिनागम के विषै यह विभाव परजाय ।।१०७।। आत्मा की दशा तो आदि से अन्त तक सहजरूप से एक सूत्र में अनुभूत रहती है और चारों गतियों के फल से असंपृक्त ही रहती है। नर-नारकादिकरूप जो दुखदायी चार गतियाँ हैं; उन्हें जिनागम में विभाव पर्याय कहा है। स्वामीजी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “जिसप्रकार एक पुद्गल परमाणु दूसरे परमाणु से मिलकर अनेकद्रव्यात्मक पर्याय धारण करता है। रोटी, दाल, भात के परमाणु के कारण शरीर अनेकद्रव्यात्मक अवस्था धारण करता हुआ देखने में आता है। दूसरे अनेक पुद्गल परमाणु पुस्तकरूप मकानरूप अनेकद्रव्यात्मक अवस्था धारण किये हुयेप्रत्यक्ष देखने में आते हैं; उसीप्रकार आत्मा अनेकद्रव्यात्मक पर्यायरूप संसारदशा में उत्पन्न होता हुआ देखने में आता है। एकेन्द्रिय हो तो एकेन्द्रिय के आकाररूप, मनुष्य हो तो मनुष्य के आकाररूप आदि अनेकद्रव्यात्मक अवस्था धारण करता हुआ देखने में आता है।' आत्मा की व्यंजनपर्याय और पुद्गल की व्यंजनपर्याय भिन्न-भिन्न है। एक द्रव्य की पर्याय का दूसरे द्रव्य की पर्याय में अत्यन्त अभाव है। जैसे बर्तन में रखे हुए पानी का आकार बर्तन जैसा होने पर भी पानी बर्तनरूप १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-११९
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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