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________________ प्रवचनसार गाथा १५०-१५१ 'प्राण पौद्गलिक कर्मों के कारण भी हैं और कार्य भी हैं।' विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह स्पष्ट करते हैं कि पौद्गलिक प्राणों की संतति की प्रवृत्ति और निवृत्ति का अंतरंग हेतु क्या है ? गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे। ण चयदि जाव ममत्तिं देहपधाणेसु विसयेसु ।।१५०।। जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि। कम्मेहिं सो ण रज्जदि किह तं पाणा अणुचरंति ॥१५१॥ (हरिगीत) ममता न छोड़े देह विषयक जबतलक यह आतमा। कर्ममल से मलिन हो पुन-पुन: प्राणों को धरे ।।१५०।। उपयोगमय निज आतमा का ध्यान जो धारण करे। इन्द्रियजयी वह विरतकर्मा प्राण क्यों धारण करे ।।१५१।। जबतक यह कर्ममल से मलिन आत्मा देहप्रधान विषयों में ममत्व नहीं छोड़ता; तबतक बारम्बार अन्य-अन्य प्राणों को धारण करता है। जो आत्मा इन्द्रियादिक का विजयी होकर उपयोगमय आत्मा का ध्यान करता है; वह कर्मों के द्वारा रंजित नहीं होता; उसके प्राणों का संबंध कैसे हो सकता है ? आचार्य अमृतचन्द्र इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “पौद्गलिक प्राणों की संतानरूप प्रवृत्ति का अंतरंग हेतु शरीरादि में ममत्वरूप उपरक्तपना है और उस उपरक्तपने का मूल अनादि पौद्गलिक कर्म है। पौद्गलिक प्राणों की संतति की निवृत्ति का अंतरंग हेतु पौद्गलिक कर्म के उदय से होनेवाले उपरक्तपने का अभाव है और वह (उपरक्तपने का अभाव) अनेक वर्णों वाले आश्रयों (पात्रों-डाकों) के अनुसार सारी गाथा-१५०-१५१ २५१ परिणति से व्यावृत्त हुए स्फटिक मणि की भाँति जो आत्मा अत्यन्त विशुद्ध उपयोगमय अकेले आत्मा में सुनिश्चिलतया बसता है; उसके वह उपरक्तपने का अभाव होता है। तात्पर्य यह है कि आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिए व्यवहारजीवत्व के हेतुभूत पौद्गलिक प्राण उच्छेद करनेयोग्य हैं।" __ आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका के समान ही इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करते हैं । निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए अन्त में लिखते हैं कि इससे यह निश्चित हुआ कि शरीरादि में ममता ही इन्द्रियादि प्राणों की उत्पत्ति का अंतरंग कारण है और कषाय और इन्द्रियों पर विजय ही इन्द्रियादि प्राणों के अभाव का कारण है। इन गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी २ मत्तगयन्द सवैया, १ माधवी और २ दोहे - इसप्रकार कुल मिलाकर ५ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जिनमें से २ दोहे और १ मत्तगयन्द इसप्रकार है - (दोहा) जावत ममता भाव है, देहादिक के माहिं। तावत चार सुपान धरि, जगतमांहि भरमांहि ।।१४।। तातें ममताभाव को, करो सरवथा त्याग । निज समतारसरंग में, वृन्दावन अनुराग ।।१५।। जबतक देहादिक में ममताभाव है, तबतक चार प्राणों को धारण कर जगत में परिभ्रमण होता है। इसलिए ममताभाव को सर्वथा त्याग करो और अपने समता रसरूपी रंग में निरन्तर अनुराग करो। (मत्तगयन्द) जो भवि इन्द्रिय आदि विजै करि, ध्यावत शुद्धपयोग अभंगा। कर्मनि सो तजि राग रहे, निरलेप जथा जल कंज प्रसंगा॥ झांक-विहीन जथा फटिकप्रभ, त्यों उर जोत की वन्द तरंगा। क्योंमल प्रान बँधै वह तो, नित न्हात विशुद्ध सुभाविक गंगा॥१६।। जो भव्यजीव इन्द्रियादि प्राणों पर विजय प्राप्त कर अखण्डरूप से शुद्धोपयोग को ध्याते हैं और सभी प्रकार कर्मों से राग तजकर जल
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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