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________________ गाथा-१४८-१४९ २४९ २४८ प्रवचनसार अनुशीलन प्राणों से कर्मफल भोगता हआ जीव मोह व द्वेष को प्राप्त होता है और मोह व द्वेष से स्वजीव व परजीव के प्राणों को बाधा पहुँचाता है। ___परप्राणों को बाधा पहुँचाये, चाहे न पहुँचाये; उपरक्तपने से अपने भावप्राणों को बाधा पहुंचाता हुआ जीव ज्ञानावरणादि कर्मों को तो बाँधता ही है। इसप्रकार प्राण पौद्गलिक कर्मों के कारणपने को प्राप्त होते हैं।” आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में वैसे तो तत्त्वप्रदीपिका का अनुसरण करते हैं; किन्तु अन्त में उक्त तथ्य को निष्कर्ष के रूप में सोदाहरण इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - "जिसप्रकार तपे हुए लोहे के गोले से दूसरों को मारने का इच्छुक पुरुष पहले तो स्वयं को ही जलाता है; दूसरे जलें या न जलें। ___ इसीप्रकार मोहादि परिणत अज्ञानी जीव पहले विकार रहित स्वसंवेदन ज्ञानस्वरूप अपने शुद्ध प्राणों का घात करता हैबाद में दूसरों के प्राणों का घात हो, चाहे न हो।" कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव को १ मनहरण, १ द्रुमिल और ४ दोहा - इसप्रकार कुल मिलाकर छह छन्दों में प्रस्तुत करते हैं। नमूने के तौर पर ४ दोहे इसप्रकार हैं (दोहा) कारन के सादृश जगत, कारज होत प्रमान । तापुद्गल करम करि, पुद्गल बँधत निदान ।।८।। मोहादिक करि आपनो, करत अमलगुन घात । ता पीछे परप्रान को, करत मूढ़ विनिपात ।।१०।। परप्राननि को घात तौ, होहु तथा मति होहु । पै निज ज्ञान-प्रान तिन, निहचै घाते सोहु ।।११।। तब ज्ञानावरनादि तहँ, बँधैं करम दिढ़ आय । प्रकृतिप्रदेशनुभागथिति, जथाजोग समुदाय ।।१२।। जगत में कार्य, कारण के समान ही होते हैं; इसलिए पुद्गल कर्म द्वारा पुद्गलकर्म बंधते हैं। मूढ़ जीव पहले मोहादिक द्वारा अपने निर्मल गुणों का घात करते हैं। बाद में पर प्राणों का घात करते हैं। पर प्राणों का घात हो अथवा न हो; फिर भी अपने ज्ञानप्राणों का घात तो निश्चितरूप से होता ही है। ऐसी स्थिति में ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के रूप में यथायोग्य बंधते ही हैं। स्वामीजी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “जीव मोहादिभाव करता है, इसलिए मोहनीय आदि आठ पुद्गल कर्मों से बँधता है । यहाँ मोहनीय की मुख्यता से बात की है, ज्ञानावरणादि गौण हैं । जीव की अज्ञानदशा में कर्म निमित्त हैं । उन कर्मों के फल में पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, श्वास और आयु प्राण की प्राप्ति होती है।' इसप्रकार चारों प्राण पुद्गल कर्म के कारण प्राप्त होते हैं; आत्मा के स्वभाव के कारण नहीं। इसप्रकार प्राण प्राप्ति का कारण पुद्गल कर्म है और नवीन कर्मबन्धन का कारण प्राण हैं, इसलिए प्राण पौद्गलिक हैं - ऐसा सिद्ध होता है। वस्तुत: अपने चैतन्यप्राण की हिंसा अर्थात् भावहिंसा नवीन कर्म के बंध का कारण है। द्रव्यप्राण नवीन कर्म के बंध का वास्तविक कारण नहीं है; परन्तु जीव द्रव्यप्राण से लाभ-हानि मानकर राग-द्वेष करता है और नवीन कर्म बन्धन करता है - इसका उपचार करके द्रव्यप्राण को नवीन कर्म बंध का कारण कहा गया है। इसप्रकार प्राण नवीन कर्म बंध के कारण हैं।" इसप्रकार इन गाथाओं में और उसकी टीका में यही कहा गया है कि मोहादिक पौद्गलिक कर्मों से बँधा होने से जीव प्राणों से संयुक्त होता है और कर्मफल को भोगता हुआ पुनः कर्मों से बंधता है। ___इसप्रकार प्राण पुराने पौद्गलिक कर्म के उदय के कार्य हैं और नये पुद्गल कर्म के बंध के कारण हैं। इसप्रकार प्राण पूर्णत: पौद्गलिक ही हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१०२ २. वही, पृष्ठ-१०३ ३. वही, पृष्ठ-१०४ ४. वही, पृष्ठ-१०८
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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