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________________ २२८ प्रवचनसार अनुशीलन समय में होना अशक्य है; इसलिए उस अवस्था का धारक अवस्थायी द्रव्य होना चाहिए; और वह काल पदार्थ है। एक समय में नई अवस्था उत्पन्न होती है, पुरानी अवस्था व्यय होती है और कालाणु ध्रुव रहता है। वर्तमान रोटी की अवस्था का उत्पाद होना, पूर्व की लोई की अवस्था का व्यय होना और आटा के परमाणुओं का ध्रुव रहना होता है; परन्तु परमाणु को ध्रुव स्वीकार किये बिना आटे की अवस्था के समय रोटी की अवस्था नहीं हो सकती; क्योंकि दोनों विरोधी अवस्थायें हैं और एक सूक्ष्म अवस्था में थोड़ा आटा और थोड़ी रोटी - ऐसे दो भाग नहीं हो सकते। परमाणु को ध्रुव स्वीकार किया जावे तो दोनों विरोधी धर्म द्रव्य में सिद्ध होते हैं। इसप्रकार एक पर्याय में पूर्व पर्याय की अपेक्षा से व्ययरूप, वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से उत्पादरूप और सादृश्य रहने की अपेक्षा से ध्रुवरूप - इसप्रकार कालपदार्थ उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यवाला है - ऐसा निश्चित होता है। * अब, जैसे एक पर्याय में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला सिद्ध किया; उसीप्रकार सर्व पर्यायों में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यवाला है - ऐसा सिद्ध करते हैं । एक वृत्ति अंश भलीभाँति निश्चित करने से उत्पाद-व्यय-ध्रुव तीनों अंश निश्चित होते हैं। यही कालाणु पदार्थ के अस्तित्व की सिद्धि है। जैसे एक समय में पूर्व पर्याय गई, वर्तमान पर्याय प्रगट हुई और ध्रुव कायम रहा; वैसे प्रत्येक समय में तीनों धर्म रहते हैं। पूर्व में भी ऐसा ही, वर्तमान में भी ऐसा ही और भविष्य में भी ऐसा ही ऐसे तीनों काल की अवस्थाओं में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रुवसहित है - ऐसा निश्चित होता है। " १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-७५ ३. वही, पृष्ठ-७६ ५. वही, पृष्ठ ७८ २. वही, पृष्ठ-७५ ४. वही, पृष्ठ-७६ ६. वही, पृष्ठ ७८ गाथा - १४२-१४३ २२९ उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि अन्य द्रव्यों के समान एक प्रदेशी या अप्रदेशी कालाणु भी एक द्रव्य है। ऐसे कालाणु द्रव्य असंख्य हैं और लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक कालाणु द्रव्य रत्नों की राशि के समान खचित हैं। समय उक्त कालाणु द्रव्य की सबसे छोटी पर्याय है । वह समय आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश का अत्यन्त मंदगति से गमन करनेवाले पुद्गल परमाणु की गति के आधार पर नापा जाता है। वह समय अनादि-अनन्त त्रिकाली ध्रुव कालद्रव्य का सबसे छोटा अंश है, जो स्वयं निरंश है। यह अंश कल्पना ऊर्ध्वप्रचय संबंधी है । प्रत्येक द्रव्य के समान कालद्रव्य भी प्रतिसमय उत्पाद, व्यय और व्य से संयुक्त है। पूर्व पर्याय के व्यय, उत्तर पर्याय के उत्पाद और द्रव्य का ध्रुवत्व - यह प्रत्येक द्रव्य की स्वरूपसंपदा है; इसलिए यह सुनिश्चित ही है कि एक समय में होनेवाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य द्रव्य में ही घटित होते हैं, एक पर्याय में नहीं । अत: कालाणु द्रव्य का अस्तित्व स्वीकार किये बिना एक समय में उत्पाद, व्यय और ध्रुवत्व का होना संभव नहीं है। इसप्रकार वह कालद्रव्य निरन्वय नहीं है, अन्वय सहित ही है। यह तो आपको विदित ही है कि ८०वीं गाथा की टीका में द्रव्यगुण- पर्याय के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि अन्वय द्रव्य है, अन्वय का विशेषण गुण है और अन्वय का व्यतिरेक पर्याय है । उक्त परिभाषा के अनुसार भी कालाणु द्रव्य अन्वय सहित है, निरन्वय नहीं; क्योंकि द्रव्य की परिभाषा ही अन्वय है । अन्त में यह कहा गया है कि जिसप्रकार कालाणुद्रव्य के एक अंश में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य घटित होते हैं; उसीप्रकार कालाणु द्रव्य के प्रत्येक अंश में भी वे घटित होंगे ही। इसप्रकार यह सुनिश्चित ही है कि सभी द्रव्यों के समान सभी कालाद्रव्य भी उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य से संयुक्त हैं।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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