SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ प्रवचनसार अनुशीलन बात सिद्ध करते हैं कि कालद्रव्य में एक समय में ही उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य विद्यमान हैं। उदाहरण और सिद्धान्त इसप्रकार है - जिसप्रकार अंगुली द्रव्य में वर्तमान टेढी पर्याय का उत्पाद, पूर्व की सीधी पर्याय का व्यय और दोनों की आधारभूत अंगुली द्रव्यरूप ध्रौव्य है। अथवा अतीन्द्रिय सुखरूप से उत्पाद, पूर्व की पर्याय में प्राप्त दुख का व्यय और दोनों के आधारभूत परमात्मद्रव्यरूप से ध्रौव्य है। ___ अथवा मोक्षपर्यायरूप से उत्पाद, मोक्षमार्गरूप पूर्वपर्याय से व्यय और उन दोनों के आधारभूत परमात्मद्रव्यरूप से ध्रौव्य है। उसीप्रकार कालाणु द्रव्य में वर्तमान समयरूप पर्याय से उत्पाद, पूर्व पर्यायरूप से व्यय और दोनों के आधारभूत कालाणु द्रव्य से ध्रौव्य - इसप्रकार कालाणु द्रव्य सिद्ध हुआ। एकप्रदेशी कालाणु द्रव्य को स्वीकार किये बिना कालद्रव्य की सिद्धि नहीं होगी और उसके अभाव में कोई भी पदार्थ सिद्ध नहीं होगा। कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं और उनकी टीकाओं के भाव को ४ दोहे, १ छप्पय, १ मनहरण और १माधवी छन्द - इसप्रकार कुल ७ छन्दों में विस्तार से प्रस्तुत करते हैं; जो मूलत: पठनीय हैं। कालाणु द्रव्य स्वीकार न करें और समय नामक पर्याय के ही उत्पत्तिविनाश माने तो क्या आपत्ति ? तात्पर्य यह है अनादि-अनन्त त्रिकाली ध्रुव कालद्रव्य को मानने की क्या आवश्यकता है ? इसप्रकार कहकर कालद्रव्य की सत्ता से इन्कार करनेवाले लोगों को यद्यपि सयुक्ति समुचित उत्तर टीकाओं में दिया गया है। फिर भी वृन्दावनदासजी इस बात को अत्यन्त सरल भाषा में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (दोहा) कालदरव को क्यों कहो, उपजनविनशनरूप। समय परज ही कों कहो, वयउतपादसरूप ।।९७।। ध्रौव दरव को छांडि के एकै समय मँझार। उतपत ध्रुव वय सधत नहिं, कीजै कोट विचार ।।१८।। गाथा-१४२-१४३ उतपत अरु वय के विर्षे,राजत विदित विरोध । अंधकार परकाशवत, देखो निज घट शोध ।।९९।। तातें कालानू दरव, ध्रौव गहोगे जब्ब । निरावाध एकै समय, तीनों सधिहैं तब्ब ।।१०।। यदि कोई यह कहे कि आप कालद्रव्य को उत्पाद-व्ययरूप क्यों कहते हो; समय नामक पर्याय को ही उत्पाद-व्ययरूप कहो न? करोड़ों विचार करो, तब भी ध्रुव द्रव्य को छोड़कर एक समय नामक पर्याय में उत्पाद-व्यय और ध्रुव घटित नहीं होते हैं। अन्धकार और प्रकाश में जिसप्रकार का सर्वविदित विरोध है; उसीप्रकार उत्पाद और व्यय में भी है। यह बात अपने हृदय में गंभीरता से विचार करो । इसलिए जब ध्रुव कालाणु द्रव्य को ग्रहण करोगे, तब एक ही द्रव्य में एक समय में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - तीनों सिद्ध हो जावेंगे। पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं के भाव को विगत छन्द में समाहित कर ही चुके हैं। स्वामीजी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “अब कालपदार्थ के ऊर्ध्वप्रचय के अन्वयरहित होने की बात का खण्डन करते हैं अर्थात् व्यवहार काल है; परन्तु निश्चय कालाणु नाम का सदृश रहनेवाला पदार्थ ही जगत में नहीं है - ऐसा माननेवाले की बात का खण्डन करते हैं।' एक समय की अवस्था पहले नहीं थी और बाद में हुई, तो वह अवस्था किसी द्रव्य के आधार से होनी चाहिए; वह बिना आधार के नहीं हो सकती। किसी के आधार बिना उत्पाद संभव नहीं है। इसलिए समय आदि व्यवहार काल है, तो उसका आधार कोई पदार्थ होना चाहिए - ऐसा सिद्ध होता है; और वह कालाणु है। इसलिए काल औपचारिक नहीं, परन्तु निश्चय द्रव्य है। इसप्रकार समयरूपी सूक्ष्म परिणति को उत्पाद तथा विनाश एक ही १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-७३-७४ २. वही, पृष्ठ-७४
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy