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________________ गाथा-९४ प्रवचनसार अनुशीलन शरीर को अपना मानता है। शरीर असमानजातीयद्रव्यपर्याय है; फिर भी उनकी क्रिया जीव से हुई है - ऐसा अज्ञानी मानता है। समानजातीय स्कन्धों में भी प्रत्येक परमाणु की पर्याय उनके द्रव्य गुण के आधार से है और अपनी राग पर्याय अपने आधार से है - ऐसा वह नहीं देखता; अपितु संयोगों को ही देखता है, किन्तु स्वभाव को नहीं देखता ।' तथा असमानजातीयद्रव्यपर्याय में आत्मा और शरीर दोनों द्रव्यों की पर्यायें पृथक्-पृथक् हैं और वे उनके द्रव्य के आधीन हैं - ऐसा होने पर भी अज्ञानी मानताहै किशरीर था तो धर्म हुआ और आत्मा थी तो शरीर चला। वस्तु त्रिकाल है, शक्ति अनंत है और पर्याय समय-समय द्रव्य में से आती है - ऐसे स्वभाव की श्रद्धा करना, वह केवलज्ञान का कारण है।' अज्ञानी जीव ऐसे आत्मस्वभाव का आदर नहीं करता; वह शरीर, निमित्त व असमानजातीयद्रव्यपर्याय का आश्रय लेता है; किन्तु द्रव्यगुण का आश्रय नहीं लेता। अपने को पुण्य-पाप जितना (मात्र) ही मानता है; अत: वह आत्मा का अनुभव करने के लिए नपुंसक है। जड़ का आश्रय करना मनुष्यव्यवहार है और उसका फल निगोद है।" यहाँ दो ही बात कही हैं। जो पर्याय में मूढ है, वह परसमय है और जो द्रव्य-गुण में लीन है, वह स्वसमय है। यह प्रवचनसार का ज्ञेय अधिकार है; इसमें द्रव्य-गुण तथा विकारी अथवा अविकारी पर्यायों का यथार्थ ज्ञान कराते हैं। अज्ञानी जीव जड़ की क्रिया, पुण्य की क्रिया करना चाहिए - ऐसा कहकर सभी संयोगों और निमित्तों को छाती से लगाता है।' अलग-अलग कमरों में ले जाया जानेवाला दीपक एकरूप ही है, १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-४० २.वही, पृष्ठ-४० ३. वही, पृष्ठ-४१ ४.वही, पृष्ठ-४२ ५. वही, पृष्ठ-४३ ६. वही, पृष्ठ-४८ ७. वहीं, पृष्ठ-५०-५१ वह उस कमरेरूप बिल्कुल नहीं होता और परपदार्थों की क्रिया नहीं करता; उसीतरह अलग-अलग शरीरों में प्रवेश करता हुआ आत्मा एकरूप ही है; वह शरीररूप बिल्कुल नहीं होता और शरीर की क्रिया नहीं करता - ऐसा ज्ञानी जानते हैं। ___ जो जीव अपने स्वज्ञेय का आश्रय करता है, उसे सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप आत्मव्यवहार प्रगट होता है। इसतरह अपने द्रव्य-गुण-पर्याय के पिण्ड स्वद्रव्य का आश्रय होने से वह जीव वास्तव में स्वसमय होता है। जो मनुष्यव्यवहार का आश्रय करता है, उसका संसार दूर नहीं होता और स्वज्ञेय का आश्रय करनेवाले ज्ञानी को संसार उत्पन्न नहीं होता। मनुष्यव्यवहार का ज्ञानी आश्रय नहीं करते, अपितु आत्मव्यवहार का आश्रय करते हैं अर्थात् वे अपने द्रव्य का आश्रय करते हैं; अपने अंशी स्वभाव का आश्रय करते हैं। इसलिए रागी-द्वेषी नहीं होते। परद्रव्य के साथ संबंध नहीं करने से, केवल स्वद्रव्य के साथ ही सम्बन्ध करने से वे जीव धर्म को प्राप्त करते हैं। ज्ञेय अधिकार की इन दो गाथाओं में महल का स्तम्भ रोपा है; उस पर प्रशम के लक्ष्य से केवलज्ञानरूपी महल बनेगा अथवा जो मुमुक्षु इन दो गाथाओं को यथार्थ समझेंगे वे निश्चितरूप से अपने में सम्यग्दर्शन प्रगट करेंगे।" उक्त सम्पूर्ण कथन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहाँ मनुष्यादि असमानजातीयद्रव्यपर्यायों में एकत्व-ममत्व रखनेवालों को ही मुख्यतः परसमय कहा गया है। जो लोग इन गाथाओं की व्याख्या करते समय भी केवलज्ञानादि पर्यायों से भिन्नता पर बल देते हैं; उन्हें इन १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-५५ ३. वही, पृष्ठ-५९ ५. वही, पृष्ठ-६२ २. वही, पृष्ठ-५६ ४. वही, पृष्ठ-६० ६. वही, पृष्ठ-६२
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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