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________________ . ७० प्रवचनसार अनुशीलन रहित होने के कारण, अपने निर्विकाररूप मोक्ष का साक्षात् कारण होने से, अपना कार्य करने में समर्थ है - ऐसे चारित्रवाला होने से वह साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करता ही है। ___ जो शुभराग ज्ञानी मुनि को भी बाधक है, बन्ध का कारण है; उसे कुछ लोग धर्म कहते हैं, हितकर कहते हैं; किन्तु आचार्यदेव तो मुनिदशा के शुभ उपयोग को, व्यवहाररत्नत्रय के शुभभाव को भी चारित्रधर्म से विरुद्ध शक्तिवाला, धर्मकार्य कराने के लिए असमर्थ और कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला कहते हैं। साधकदशा में आंशिक निश्चयरत्नत्रयरूप अभेदरत्नत्रयवान मुनि को, आंशिक सराग और आंशिक वीतरागरूप चारित्र होने से - ऐसे चारित्रवाले मुनिराज शुभभाव में ऐसा अनुभव करते हैं जैसे अग्नि से गरम किया हुआ घी किसी के ऊपर डाला जावे तो वह पुरुष दाह्य दुःख को ही प्राप्त होता है। मुनि को शुभरागरूप अर्थात् व्यवहारचारित्ररूप जितना शुभोपयोग है, उसके फल में वे स्वर्ग के आकुलतामय सुख के बन्ध को ही प्राप्त होते हैं। देखो, आचार्य स्वयं भावलिंगी मुनि हैं, उन्हें शुभराग भी है, जिसके फल में स्वर्ग है - ऐसा वे जानते हैं; फिर भी भव और भव के कारण का वर्तमान से ही निषेध करते हैं। पाँच महाव्रत, छह आवश्यक आदि अट्ठाईस मूलगुण के शुभभाव मुनिदशा में होते हैं, किन्तु उससे विरुद्ध जाति का राग मुनिदशा में नहीं होता; फिर भी वह शुभराग उबलते हुए गर्म घी के छींटे जैसा दुःखरूप, बंधन का कारण है और बंधन ही उसका फल है। ___ इसलिए एक शुद्धोपयोग ही उपादेय है और शुभोपयोग हेय है - १.दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-८९ २. वही, पृष्ठ-८९ ३. वही, पृष्ठ-८९-९० गाथा-११ ऐसा प्रसिद्ध करते हैं।” उक्त सम्पूर्ण प्रतिपादन कासार यही है कि साक्षात् मुक्ति का मार्ग तो एकमात्र शुद्धोपयोग या शुद्धपरिणतिरूप वीतरागचारित्र ही है, शुभोपयोग या शुभभावरूप सरागचारित्र नहीं। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यदि ऐसा है तो छठवें गुणस्थानवर्ती शुभोपयोगी मुनिराज क्या मुक्तिमार्गी नहीं है, क्या वे धर्मात्मा नहीं हैं ? यदि वे धर्मात्मा हैं, मुक्तिमार्गी हैं तो फिर शुभोपयोग को भी धर्म मानना होगा, मुक्ति का मार्ग मानना होगा। अरे भाई! छटवेंगुणस्थानवाले मुनिराज शुभोपयोग के कारण धर्मात्मा नहीं है, अपितु तीन (अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण) कषाय के अभाव से उत्पन्न वीतरागभावरूप शुद्धपरिणति के कारण धर्मात्मा है, मुक्तिमार्गी हैं। यद्यपि व्यवहार से शुभोपयोग या सरागचारित्र को भी धर्म कहा जाता है, मुक्तिमार्ग कहा जाता है; अत: व्यवहार से उन्हें धर्मात्मा भी कहा ही जाता है, मुक्तिमार्गी कहा जाता है; तथापि निश्चय से तो वीतरागभाव ही धर्म है,ज्ञपितमुरआन हाशिमागदर्श में ही आत्मा की खोज का पुरुषार्थ प्रारंभ होता है। यदि गुरुओं का संरक्षण न मिले तो यह आत्मा कुगुरुओं के चक्कर में फंसकर जीवन बर्बाद कर सकता है तथा यदि गुरुओं का सही दिशा-निर्देश न मिले तो अप्रयोजनभूत बातों में ही जीवन बर्बाद हो जाता है। अत: आत्मोपलब्धि में गुरुओं के संरक्षण एवं मार्गदर्शन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुरुजी अपना कार्य (आत्मोन्मुखी उपयोग) छोड़कर शिष्य का संरक्षण और मार्गदर्शन करते हैं; उसके बदले में उन्हें श्रेय के अतिरिक्त मिलता ही क्या है ? आत्मोपलब्धि करनेवाले को तो आत्मा मिल गया, पर गुरुओं को समय की बर्बादी के अतिरिक्त क्या मिला? फिर भी हम उन्हें श्रेय भी न देना चाहें - यह तो न्याय नहीं है। अत: निमित्तरूप में श्रेय तो गुरुओं को ही मिलता है, मिलना भी चाहिए, उपादान-निमित्त की यही संधि है, यही सुमेल है। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ १६७
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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