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________________ प्रवचनसार गाथा-१२ ११ वीं गाथा में शुद्धोपयोग और शुभोपयोग के फल की चर्चा करने के उपरान्त अब १२ वीं गाथा में अशुभोपयोग के फल के संबंध में चर्चा करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है असुहोदएण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरड्यो। दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिदुदो भमदि अच्चंतं ।।१२।। (हरिगीत) अशुभोपयोगी आतमा हो नारकी तिर्यग कुनर । संसार में रुलता रहे अर सहस्त्रों दुख भोगता ।।१२।। अशुभोपयोग से यह आत्मा कुनर, तिर्यंच और नारकी होकर हजारों दुःखों से पीड़ित संसार में सदा ही परिभ्रमण करता रहता है। __ आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जब यह आत्मा किंचित्मात्र भी धर्मपरिणति प्राप्त न करता हुआ अशुभोपयोग परिणति का अवलंबन करता है; तब वह कुमनुष्य, तिर्यंच और नारकी के रूप में परिभ्रमण करता हुआ हजारों दुःखों के बंधन का अनुभव करता है; इसलिए अशुभोपयोग में चारित्र का लेशमात्र भी न होने से वह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय ही है।" तात्पर्यवृत्ति में भीइस गाथा का इसीप्रकार का भाव व्यक्त किया गया है। इस गाथा और टीका का भाव कविवर वृन्दावनदासजी अनेक छन्दों में इसप्रकार व्यक्त करते हैं। (माधवी) अशुभोदय से यह आतमराम, अनंत कलेश निरंतर पायो। कुमनुष्य तथा तिरजंचनि में, बहुधा नरकानल में पचि आयो ।। नहिं पार मिल्यो परिवर्तन को, इहि भांति अनादि कुकाल गमायो । अब आतम धर्मगहो सुखकन्द, जिनिंदजथा भविवृन्द बतायो ।।३९।। गाथा-१२ इस भगवान आत्मा ने अशुभोपयोग के कारण निरंतर अनंत दु:ख प्राप्त किये हैं। कुमनुष्यों में, तिर्यंचगति में और अनेकोंबार नरक की अग्नि में पच-पच कर दुःख भोगे हैं। इसप्रकार पंच परिवर्तन करते हुए संसार समुद्र का पार नहीं पाया है और यों ही अनादि से बुरे दिन देखे हैं। वृन्दावन कवि कहते हैं कि हे भव्यजीवो! अब तो जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये सुख के कन्द आत्मधर्म को ग्रहण करो। (दोहा) महा दुःख को बीज है अशुभरूप परिणाम । याके उदय अनन्त दुख भुगते आतमराम ।।४०।। दारिद दुखनर नीचपद इत्यादिक फल देत । नारकगति तिरजंचगति याको सहज निकेत ।।४१।। तातै तजिये सर्वथा अव्रत विषय-कषाय । याके उदय न बनि सकत एकौ धर्म उपाय ।।४२।। शुभ परिनामन के विर्षे है विवहारिक धर्म । दया दान पूजादि बहु तप संयम शुभकर्म ।।४३।। ताहि कथंचित धारिये लखिये आतमरूप। शिवमग को सहकार यह यों भाखी जिनभूप ।।४४।। अशुभभाव महादुख के बीज हैं। इन अशुभ परिणामों के उदय में आत्मा ने अनंत दु:ख भोगे हैं। इन अशुभभावों ने मनुष्यगति में दरिद्रता और नीचपद प्राप्ति आदि फल दिये हैं और नरकगति व तिर्यंचगति तो इन अशुभ परिणामों के सहज आवास ही हैं। इसलिए इन अशुभभावरूप अव्रत परिणामों और विषय-कषायभावों को सर्वथा छोड़ देना चाहिए; क्योंकि इनके रहते हुए धर्म का एक भी उपाय नहीं बन सकता है। दया, दान, पूजा, तप, संयम आदि शुभकर्मों के करनेरूप शुभभावों
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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