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________________ प्रवचनसार अनुशीलन कार्य करने में समर्थ चारित्रवान होने से साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करता है और जब धर्मपरिणत स्वभाववाला होने पर भी शुभोपयोग परिणति से युक्त होता है, तब विरोधी शक्ति सहित होने से स्वकार्य करने में असमर्थ और कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाले चारित्र से युक्त होने से अग्नि से गर्म किये गये घी को किसी मनुष्य पर डाल देने पर जिसप्रकार वह मनुष्य उसकी जलन से दुःखी होता है; उसीप्रकार आत्मा भी स्वर्गसुख के बंध को प्राप्त होता है। इसलिए शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है।" देखो, यहाँ आचार्य अमृतचन्द्रदेव शुभोपयोग को बंध का कारण, हेय, विरोधी शक्ति सहित, आत्महित का कार्य करने में असमर्थ और मुक्तिमार्ग में कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला बता रहे हैं। शुभराग को धर्म मानने वालों को आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त कथन पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। आचार्य जयसेन इस गाथा का अर्थ मूलत: तो आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार ही करते हैं; तथापि धर्म की चर्चा करते हुए गृहस्थधर्म-मुनिधर्म, उत्तमक्षमादि दश धर्म, रत्नत्रयधर्म की भी चर्चा करते हैं। इसीप्रकार चारित्र के अपहृत संयम-उपेक्षा संयम अथवा सराग संयमवीतराग संयम और शुभोपयोग और शुद्धोपयोग - ऐसे भेद भी करते हैं। गाथा और टीका का भाव कविवर वृन्दावनदासजी ३ छन्दों में इसप्रकार समेटते हैं (मत्तगयन्द) धर्म सरूप जबै प्रनवै यह, आतम आप अध्यातम ध्याता । शुद्धपयोग दशा गहि कै, सुलहै निरवान सुखामृत ख्याता ।। होत जबै शुभरूपपयोग, तबै सुरगादि विभौ मिलि जाता। आपहि है अपने परिनामनि को फल भोगनहार विधाता।।३६ ।। आत्मज्ञानी आत्मध्यानी आत्मा जब धर्मस्वरूप परिणमित होते हैं; गाथा-११ तब शुद्धोपयोगदशा को प्राप्त करके निर्वाण सुख को प्राप्त करते हैं और जब शुभोपयोगरूप परिणमित होते हैं; तब सहजभाव से स्वर्गादिक वैभव की प्राप्ति हो जाती है। इसप्रकार यह भगवान आत्मा अपने परिणामों का स्वयं भोगता है। (मोतीदाम) जबै जिय धारत चारित शुद्ध । तबै पद पावत सिद्ध विशुद्ध । सराग चरित्त धरै जब चित्त, लहे सुरगादि विर्षे वर वित्त ।।३७।। जब जीव शुद्धचारित्र अर्थात् शुद्धोपयोगरूप चारित्र को धारण करता है; तब परमपवित्र विशुद्ध सिद्धपद प्राप्त करता है और जब सरागचारित्र धारण करता है, तब स्वर्गादि में होनेवाले विषयसुख को प्राप्त करता है। (दोहा) तातें शुद्धुपयोग के जे सम्मुख हैं जीव । तिनको शुभ चारित्र महँ रमनो नाहिं सदीव ।।३८।। इसलिए जो जीव शुद्धोपयोग के सम्मुख है; उन्हें शुभोपयोगरूप चारित्र में कभी भी रमण नहीं करना चाहिए। उक्त गाथा पर प्रकाश डालते हुए आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजी स्वामी कहते हैं - ___“जब यह आत्मा संयोग और विभाव की दृष्टि-रुचि छोड़कर, स्वद्रव्य के आलम्बनरूप शुद्ध परिणामवाला हुआ है; तब वह आत्मा, वस्तु के स्वभावरूप निश्चल रत्नत्रयरूप से परिणत हुआ है। मैं शुद्ध चिदानन्द आत्मा हूँ - इसप्रकार विचार कर उसके आश्रय से निर्मल वीतरागी परिणामरूप - आंशिक धर्मरूप से वर्तता है। इसतरह स्वयं अपने आलम्बन से वीतरागी शुद्धोपयोग परिणति को वहन करता है, बनाए रखता है, अन्दर एकाग्र-स्थिर होता है। शुद्धोपयोग अबंधस्वभावी होने से, विरोधी (शुभाशुभराग) शक्ति
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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