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________________ प्रवचनसार अनुशीलन गाथा-९ (षट्पद) जब यह प्रनवत जीव, दयादिक शुभपयोगमय । अथवा अशुभ स्वभाव गहत, जहँ विषय-भोगलय ।। किंवा शुद्धपयोगमयी, जहँ सुधा बहावत । जुत परिनामिक भाव, नाम तहँ तैसो पावत ।। जिमि सेत फटिक वश झांक के, झांक वृन्द रंगत गहत । तजि झांक झांक जब झांकियत, तब अटांक सदपद महत ।।३१।। जब यह आत्मा दयादिकरूप शुभोपयोगमय अथवा विषयभोग में लीन होकर अशुभोपयोगमय परिणमित होता है अथवा पारिणामिकभाव के आश्रय से झरते हुए आनन्दामृत से युक्त शुद्धोपयोगमय परिणमित होता है; तब अपने परिणमन के अनुसार शुभ, अशुभ या शुद्ध नाम पाता है। तात्पर्य यह है कि शुभोपयोगमय परिणमित आत्मा शुभ है, अशुभोपयोगमय परिणत आत्मा अशुभ है और शुद्धोपयोगमय परिणमित आत्मा शुद्ध है। यह सब उसीप्रकार होता है कि जिसप्रकार निर्मल स्फटिकमणि झांक के संयोग से रंगत को ग्रहण करता है और झांक के बिना निर्मल स्वभावरूप ही रहता है। यद्यपि तात्पर्यवृत्ति में आचार्य जयसेन इस गाथा का अर्थ आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका के समान ही करते हैं; तथापि किंच लिखकर किस गुणस्थान में मुख्यरूप से कौन-सा उपयोग होता है - इस बात का भी उल्लेख कर देते हैं। वह मूलत: इसप्रकार है - “मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र - इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से (घटता हुआ) अशुभोपयोग; इसके बाद असंयत सम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत - इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से (बढ़ता हुआ) शुभोपयोग; इसके आगे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से क्षीणकषाय पर्यन्त छह गुणस्थानों में तारतम्य से (बढ़ता हुआ) शुद्धोपयोग, इसके बाद सयोगीजिन और अयोगीजिन - ये दो गुणस्थान शुद्धोपयोग के फल हैं - यह भाव है।" इस गाथा का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “यहाँ चारित्र क्या है - यह बात चलती है। चारित्र आत्मा का मोह-क्षोभरहित परिणाम है। शुभ अथवा अशुभरागभाव से जब आत्मा परिणमित होता है, तब वह स्वयं शुभ अथवा अशुभ होता है। ___ आत्मा स्वयं परिणाम स्वभाववाला होने से उस समय वह शुभ अथवा अशुभरूप होता है; किन्तु पर के कारण वह शुभ अथवा अशुभरूप नहीं होता। जब हिंसादि पापभावरूप से परिणमित होता है, तब वह स्वयं अपने परिणाम स्वभाव के कारण अशुभरूप परिणमित होता है और जब वह दया आदि शुभभावरूपसे परिणमित होता है, तब स्वयं अपने परिणाम स्वभाव से ही शुभरूप होता है; किन्तु बाहर की क्रिया के कारण वह शुभ-अशुभरूप परिणमित नहीं होता। शुभ परिणामरूप से परिणमित आत्मा भी धर्म नहीं है; धर्म परिणाम तो मोहादिरहित शुद्ध है। शुभ, अशुभ और शुद्ध ये तीन प्रकार के परिणाम हैं। उसमें शुभ अथवा अशुभ - दोनों ही परिणाम धर्म नहीं, किन्तु राग है। धर्म तो शुभाशुभ मोह-क्षोभ रहित शुद्ध परिणाम है। जिसप्रकार स्फटिक मणि रंग के निमित्त के संबंध रहित अकेले शुद्धरूप परिणमित होता है; उसीप्रकार आत्मा निर्मल स्वभाव का भान करके, निमित्त के अवलम्बन रहित, पुण्य-व्यवहार के परिणाम के अवलम्बन रहित, अकेले निश्चय एक ज्ञातापने में परिणमित होता है। आत्मा शुद्ध परिणाम को धारण करता है - इसलिए शुद्ध है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-७० २. वही, पृष्ठ-७२
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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