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________________ प्रवचनसार अनुशीलन आत्मा स्वभाव से शुद्ध ही है, अशुद्ध नहीं। अशुद्धता तो क्षणिक पर्याय में है। स्वयं चूककर पर के अवलम्बन से नया अशुद्ध परिणमन करता है।" इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में यही बताया गया है कि द्रव्य और पर्याय अभिन्न ही हैं; क्योंकि द्रव्य और पर्याय में क्षणिकतादात्म्य संबंध है। द्रव्य और पर्याय में तादात्म्य संबंध होने से यहाँ प्रतिपादित द्रव्य और पर्याय की अभिन्नता की बात निश्चयनय का कथन है। यह कथन तो व्यवहार का है - ऐसा कहकर उक्त कथन की उपेक्षा करना उचित नहीं विशेष ध्यान रखने की बात यह है कि यहाँ जिस आत्मा की बात चल रही है; वह आत्मा दृष्टि का विषयभूत भगवान आत्मा नहीं है; अपितु वर्तमान पर्याय से परिणमित आत्मा की है; क्योंकि जब दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा की बात चलती है, तब द्रव्य और पर्याय की चिचवसतिभावात मुख्यरहती है। दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा को सामान्य, अनादि-अनन्त-त्रिकाली ध्रुव नित्य, असंख्यातप्रदेशी-अभेद एवं अनंतगुणात्मक-अखण्ड, एक कहा गया है। इसमें जिसप्रकार सामान्य कहकर द्रव्य को अखण्ड रखा गया है, असंख्यातप्रदेशी-अभेद कहकर क्षेत्र को अखण्ड रखा गया है और अनंतगुणात्मक अखण्ड कहकर भाव को अखण्ड रखा गया है; उसीप्रकार अनादिअनन्त त्रिकाली ध्रुव नित्य कहकर काल को भी अखण्डित रखा गया है। अन्त में एक कहकर सभीप्रकार की अनेकता का निषेध कर दिया गया है। इसप्रकार दृष्टि के विषयभूत त्रिकालीध्रुव द्रव्य में स्वकाल का निषेध नहीं किया गया है, अपितु विशिष्ट पर्यायों का ही निषेध किया गया है। - दृष्टि का विषय, पृष्ठ-७९ प्रवचनसार गाथा-१० सातवीं गाथा में कहा गया था कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम ही साम्य है, चारित्र है, धर्म है। आठवीं गाथा में कहा गया कि धर्म से परिणमित आत्मा ही धर्म है और नौंवी गाथा में कहा गया कि आत्मा परिणामस्वभावी है। इसी क्रम में दशवीं गाथा में अब यह कहा जा रहा है कि परिणाम वस्तु का स्वभाव है। गाथा मूलत: इसप्रकार हैणत्थि विणा परिणामं अत्थो अत्थं विणेह परिणामो। दव्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अत्थित्तणिव्वत्तो ।।१०।। (हरिगीत) परिणाम बिन ना अर्थ है अर अर्थ बिन परिणाम ना। अस्तित्वमय यह अर्थ है बस द्रव्यगुणपर्यायमय ।।१०।। इस लोक में परिणाम के बिना पदार्थ नहीं है और पदार्थ के बिना परिणाम नहीं है; पदार्थ द्रव्य-गुण-पर्याय में रहनेवाला और अस्तित्व से निर्मित है। विशेषकर दृष्टि के विषय के सन्दर्भ में अध्यात्म के जोर में आत्मवस्तु को पर्याय (परिणाम) से भिन्न बताया जाता है; किन्तु यहाँ जोर देकर यह बताया जा रहा है कि परिणाम वस्तु से अभिन्न होता है। __ परिणमन को आत्मा से सर्वथा भिन्न मानने पर आत्मा एकान्त से नित्य सिद्ध होगा और सर्वथा अभिन्न मानने पर एकान्त से अनित्य सिद्ध होगा। इसप्रकार या तो नित्यैकान्त का प्रसंग आयेगा या फिर अनित्यैकान्त का प्रसंग आयेगा। इसी आशंका को दूर करने के लिए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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