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________________ प्रवचनसार अनुशीलन एक बात और भी है कि वे उपादानकारण के समान ही कार्य होता है। - इस नियम का स्मरण कराते हुए उपादानकारण के शुद्धोपादान और अशुद्धोपादान - ऐसे दो भेद करके निश्चय-व्यवहार धर्म को घटित करते हैं। ५२ उक्त गाथा का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिस समय जो परिणाम होता है, उससे आत्मा पृथक् नहीं है। आत्मा का स्वभाव ज्ञायक है; उस स्वभाव के अवलम्बन द्वारा अरागी परिणामस्वरूप से परिणमित हुआ आत्मा स्वयं धर्म है। जिस समय आत्मा ने अपने स्वरूप की दृष्टि की शक्ति की व्यक्तता की, उस पर्याय को धर्म न कहकर, उस समय के आत्मा को धर्म कहा है। धर्मरूप से परिणमित हुआ आत्मा स्वयं धर्म है। उस समय शुभराग सहचर होता है; इसलिए निमित्त देखकर उसे व्यवहार धर्म कहते हैं; किन्तु उसे धर्म मानना तो मिथ्यात्व है। दया दानादि के परिणाम वस्तु हैं - यह बात सही है; किन्तु वे धर्मरूप नहीं हैं। " उक्त सम्पूर्ण मंथन से एक ही बात स्पष्ट होती है कि इस गाथा में द्रव्य और पर्याय की अभिन्नता स्पष्ट की गई है। इस अपेक्षा को समझे बिना कुछ लोग द्रव्य और पर्याय को सर्वथा भिन्न प्ररूपित करने लगते हैं। उन्हें इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि यहाँ आचार्यदेव शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म और शुभोपयोगरूप व्यवहारधर्म से परिणमित आत्मा को ही धर्म कह रहे हैं। बात यहाँ तक ही नहीं है कि धर्मपर्यायरूप परिणमित आत्मा धर्म है; अपितु आगामी गाथा में तो यहाँ तक कह रहे हैं कि शुद्धभावरूप परिणमित आत्मा शुद्ध है, शुभभावरूप परिणमित आत्मा शुभ है और अशुभभावरूप परिणमन्यत्मा अशुभ है। २. वही, पृष्ठ-६३ ३. वही, पृष्ठ-६४. प्रवचनसार गाथा - ९ जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो । सुद्धेण तदा सुद्धा हवदि हि परिणामसब्भावो ।। ९ ।। ( हरिगीत ) स्वभाव से परिणाममय जिय अशुभ परिणत हो अशुभ | शुभभाव परिणत शुभ तथा शुधभाव परिणत शुद्ध है ॥ ९ ॥ जीव परिणामस्वभावी होने से जब वह शुभ या अशुभभावरूप परिणमित होता है, तब स्वयं भी शुभ या अशुभ होता है और जब शुद्धभावरूप परिणमित होता है, तब शुद्ध होता है। उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “जिसप्रकार लाल जवाकुसुम और काले तमालपुष्प के संयोग से स्फटिकमणि उनके रंगरूप परिणमित होता देखा जाता है; उसीप्रकार यह भगवान आत्मा जब शुभ या अशुभावरूप परिणमित होता है; तब परिणामस्वभावी होने से स्वयं ही शुभ या अशुभरूप होता है और जब यह भगवान आत्मा शुद्धभाव अर्थात् अरागभाव से परिणमित होता है; तब शुद्ध अराग (रंगरहित) परिणमित स्फटिक की भांति परिणामस्वभावी होने से स्वयं ही शुद्ध होता है। इसप्रकार जीव का शुभत्व, अशुभत्व और शुद्धत्व सिद्ध होता है।” जवापुष्पलाल होता है और तमाल पुष्प काला होता है। ध्यान रहे यहाँ लाल पुष्प को पुण्य का और काले पुष्प को पाप का प्रतीक मानकर बात की है। गाथा और टीका - दोनों के भाव समेटते हुए कविवर वृन्दावनजी लिखते हैं
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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