SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार गाथा-५५-५६ विगत गाथा में यह बताया गया था कि अतीन्द्रियज्ञान, अतीन्द्रियसुख का साधन है; अत: उपादेय है और अब इन गाथाओं में यह बताया जा रहा है कि इन्द्रियज्ञान, इन्द्रियसुख का साधन है और अपने विषयों में भी एकसाथ प्रवृत्ति नहीं करता है; इसलिए हेय है। गाथाएँ मूलत: इसप्रकार हैं - जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तं ण जाणादि ।।५।। फासो रसोय गंधो वण्णो सद्दो य पोग्गला होति । अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हंति ।।५६।। (हरिगीत) यह मूर्ततनगत जीव मूर्तपदार्थ जाने मूर्त से। अवग्रहादिकपूर्वक अर कभी जाने भी नहीं ।।५।।। पौद्गलिक स्पर्श रस गंध वर्ण अर शब्दादि को। भी इन्द्रियाँ इक साथ देखो ग्रहण कर सकती नहीं ।।५६।। स्वयं अमूर्त होकर भी यह जीव मूर्त शरीर को प्राप्त होता हुआ, उस मूर्त शरीर के द्वारा जाननेयोग्य मूर्त पदार्थों को अवग्रहादि पूर्वक जानता है अथवा नहीं जानता है। तात्पर्य यह है कि शरीरधारी जीव मूर्त पदार्थों को अवग्रहादि पूर्वक कभी जानता है और कभी जानता भी नहीं है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द पुद्गल हैं। वे इन्द्रियों के विषय हैं; परन्तु वे इन्द्रियाँ उन्हें भी एकसाथ ग्रहण नहीं करतीं। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों के विषय भी इन्द्रियों द्वारा एकसाथ जानने में नहीं आते। इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं गाथा-५५-५६ २५७ "इन्द्रियज्ञान में उपलम्भक (जानने में सहयोगी इन्द्रियाँ) भी मूर्त हैं और उपलभ्य (जानने में आनेवाले पदार्थ) भी मूर्त हैं। स्वयं अमूर्त होने पर भी यह इन्द्रियज्ञानवाला जीव पंचेन्द्रियात्मक मूर्त शरीर को प्राप्त होता हुआ, जानने में निमित्तभूत उपलम्भक मूर्त शरीर के द्वारा जाननेयोग्य स्पर्शादिवान मूर्त वस्तुओं को अवग्रहरूप जानता है, उससे आगे शुद्धि के सद्भावानुसार कदाचित् ईहादिरूप जानता भी है और कदाचित् शुद्धि के अभाव में नहीं जानता; क्योंकि इन्द्रियज्ञान परोक्ष है। परोक्षज्ञान परमार्थतः अज्ञान में गिने जानेयोग्य है; क्योंकि आत्मा का चैतन्यसामान्य के साथ अनादिसिद्धसंबंध होने पर भी अतिदृढ़तर अज्ञानरूप तमोग्रंथि द्वारा आवृत्त आत्मा पदार्थों को स्वयं जानने में असमर्थ होने से प्राप्त और अप्राप्त परपदार्थरूप सामग्री को खोजने की व्यग्रता से अत्यन्त चंचल व अस्थिर होता हुआ और अनंतशक्ति से च्युत होने से घबराया हुआ, महामोहमल्ल के जीवित होने से पर को परिणमित करने के अभिप्राय से पद-पद पर ठगाया जाता है। अतः परोक्षज्ञान हेय है। यद्यपि स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाले पुद्गल इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करनेयोग्य हैं; तथापि वे इन्द्रियों द्वारा एकसाथ ग्रहण नहीं किये जा सकते; क्योंकि क्षयोपशम की उसप्रकार की शक्ति नहीं है। इन्द्रियों की क्षायोपशमिक अंतरंग ज्ञातृशक्ति कौवे की पुतली के समान क्रमिक प्रवृत्तिवाली होने से एक ही साथ अनेक विषयों को जानने में असमर्थ है; इसलिए द्रव्येन्द्रियों के विद्यमान होने पर भी इन्द्रियों के विषयों का समस्त ज्ञान एकसाथ नहीं होता; क्योंकि इन्द्रियज्ञान परोक्षज्ञान है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "हे प्रभु ! तेरी अन्तर निधि ज्ञान और आनंद से भरपूर है; इसे न
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy