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________________ गाथा-५४ २५५ २५४ प्रवचनसार अनुशीलन इस गाथा की टीका में उक्त प्रश्न उठाकर उन्होंने जो समाधान प्रस्तुत किया है; वह इसप्रकार है - “यहाँ शिष्य कहता है कि ज्ञानाधिकार तो पहले ही समाप्त हो गया, यह तो सुखाधिकार चल रहा है, इसमें तो सुख की ही चर्चा करना चाहिए; फिर भी यहाँ ज्ञान की चर्चा क्यों की जा रही है ? शिष्य की शंका का समाधान करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि जो अतीन्द्रियज्ञान पहले कहा गया है, वही अभेदनय से सुख है - ऐसा बताने के लिए यहाँ ज्ञान की बात की है। अथवा ज्ञानाधिकार में ज्ञान की मुख्यता होने से हेयोपादेय का विचार नहीं किया था; अत: ज्ञान व सुख में हेयोपादेय बताने के लिए यहाँ सुख के साथ ज्ञान की भी चर्चा कर रहे हैं।" उक्त गाथा व टीकाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी ने एक ही छन्द में सुन्दरतमरूप में प्रस्तुत किया है; जो इसप्रकार है - (मनहरण कवित्त) जाकी ज्ञानप्रभा में अमूरतीक सर्व दर्व, तथा जे अतीन्द्रीगम्य अनु पुद्गल के। तथाजेप्रछन्न द्रव्य क्षेत्र काल भाव चार, सहितविशेष वृन्द निज निज थल के।। और निज आतम के सकल विभेद भाव, तथा परद्रव्यनि के जेते भेद ललके । ताहीज्ञानवंत को प्रतच्छस्वच्छ ज्ञानजानो, जामें ये समस्त एक समै ही मैं झलके ।।५।। उसी ज्ञानवंत का ज्ञान अत्यन्त स्वच्छ अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष जानना; जिसकी ज्ञानज्योति में सम्पूर्ण अमूर्तिक पदार्थ तथा मूर्तिक पुद्गल के अतीन्द्रियज्ञानगम्य परमाणु अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव सहित झलकते हैं, जानने में आते हैं तथा अपने आत्मा के भी विभेद अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव झलकते हैं, एकसमय में एकसाथ जानने में आते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष पूज्य गुरुदेवश्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __ "पूर्ण आनन्द का कारण केवलज्ञान है, दूसरी वस्तु नहीं; क्योंकि यहाँ ज्ञान के साथ आनन्द सिद्ध करना है। केवलज्ञान अमूर्त पदार्थ तथा अतीन्द्रिय मूर्त पदार्थ को देखता है। धर्मास्तिकाय आदि अमूर्त वस्तु को केवलज्ञानी जानते हैं और जो अप्रगट पदार्थ हैं, उन्हें भी जानते हैं। यहाँ कोई कहता है कि केवलज्ञानी भगवान पर को जानते हैं, वह अभूतार्थ है तो यह बात असत्य है। पर संबंधी अपना ज्ञान भूतार्थ है । ज्ञान पर में प्रवेश किए बिना जानता है; इसलिए व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं - ऐसा शास्त्र में कहा है। अज्ञानी कहता है कि लोकालोक का जानपना अभूतार्थ है; किन्तु यह बात असत्य है । स्व-परप्रकाशक ज्ञान की शक्ति है।' केवलज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सहित सूक्ष्मता से जानता है। अमूर्त - ऐसे जो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इत्यादि और मूर्त पदार्थों में एक, दो, तीन, चार पृथक् सूक्ष्म परमाणु को भगवान जानते हैं । जीव की पर्याय कहाँ होगी और कौन होगी, उसे जानते हैं तथा किस पुद्गल की कौन-सी पर्याय कैसी होगी, उसे भी भगवान जानते हैं। जैसे जलनेयोग्य पदार्थ अग्नि का उल्लंघन नहीं करते, वैसे ही जगत के जाननेयोग्य पदार्थ पूर्ण ज्ञानदशा में ज्ञात हो जाते हैं। केवलज्ञान सभी को जान लेता है। जो ज्ञान पर्याय आत्मा के साथ जुड़कर पूर्ण दशारूप हुई है, उसके प्रभाव को कौन रोक सकता है? इसप्रकार केवलज्ञान अतीन्द्रिय आनन्द का कारण है, इसलिए वह उपादेय है।" उक्त सम्पूर्ण मंथन का सार यह है कि अतीन्द्रियज्ञान (क्षायिकज्ञानकेवलज्ञान) में सभी स्व-पर और मूर्त-अमूर्त पदार्थ अपनी सभी स्थूलसूक्ष्म पर्यायों के साथ एक समय में ही जानने में आते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२३ २. वही, पृष्ठ-२४ ३. वही, पृष्ठ-२८-२९
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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