SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ प्रवचनसार अनुशीलन देखकर वह मानता है कि यदि मैं इन्द्रियाँ, मन और प्रकाश आदि को अनुकूल रखूँ तो ज्ञान का विकास होता है, जिससे वह पर को देखने में निरन्तर सावधानी रखता है, जिसमें स्वाधीनता लुट जाती है। मैं चैतन्यस्वभावी आत्मा हूँ, उसे भूलकर क्षेत्र अनुकूल हो तो ज्ञान का विकास होता है, इन्द्रियाँ बराबर (ठीक) रहें तो अच्छा हो - ऐसा मूढ़ मिथ्यादृष्टि मानता है। स्वभाव का माहात्म्य करे और इन्द्रियाँ, मन, प्रकाशादि के साथ संबंध रखनेवाले मूर्त ज्ञान का माहात्म्य छोड़े तो शांति होती है। पर्यायवान की पर्याय है, वह ज्ञान की पर्याय ज्ञानवान आत्मा में से आती है, प्रगट होती है। उसके बदले निमित्त में से ज्ञान पर्याय प्रगट करना चाहे तो वह मिथ्यात्व है, अज्ञान है। इन्द्रियज्ञान इन्द्रियप्रकाश आदि बाह्यसामग्री को ढूँढ़ने की व्यग्रता (अस्थिरता) के कारण अतिशय चंचल-क्षुब्ध है तथा अल्पशक्तिवान होने से खेदखिन्न है । पर पदार्थों को परिणमित कराने का अभिप्राय होने से वह पद-पद पर ठगाया जाता है। इन्द्रियज्ञान एक ही पदार्थ के इन्द्रियगम्य अनेक विषयों को एक ही साथ नहीं जान सकता अर्थात् जब वह रंग को जानता है, तब गंध को नहीं जानता तथा जब काले रंग को जानता है, तब वह सफेद रंग को नहीं जानता - ऐसी ही इस क्षयोपशम की इसप्रकार की शक्ति है । इसीलिए वह खण्ड-खण्ड ज्ञान पराधीन है, हेय है। इन्द्रियज्ञान स्पर्श आदि पदार्थ को क्रम से जानता है। मुख्य ऐसे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्द और उनके अन्तर्गर्भित अनेक भेद हैं; जैसे ठंडा-गर्म लगता है, वह स्पर्श है; खट्टा-मीठा लगता है, वह रस है; सुगन्ध १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ- ३६ ३. वही, पृष्ठ- ३७ २. वही, पृष्ठ-३७ ४. वही, पृष्ठ ४० गाथा - ५५-५६ २५९ दुर्गन्ध गंध है, लाल-पीला वर्ण है तथा जो शब्द हैं, उन्हें जड़ - इन्द्रियों द्वारा जान सकता है; किन्तु इन्द्रियों द्वारा उन पदार्थों को एकसाथ नहीं जान सकता; क्योंकि जब स्वाद के ऊपर लक्ष्य होता है, तब रूप के ऊपर लक्ष्य नहीं होता; इसप्रकार इन्द्रियज्ञान खण्ड-खण्ड ज्ञान है । ज्ञान का विकास होने पर भी वह एक ही साथ पाँचों इन्द्रियों के विषयों को नहीं जान सकता। जब रूप की तरफ ख्याल (लक्ष्य) जाता है, तब शब्द के ऊपर लक्ष्य नहीं होता और शब्द का ख्याल करने जाय, वहाँ रूप को भूल जाता है। इसप्रकार इन्द्रियज्ञान खण्ड-खण्ड ज्ञान है, वह आत्मा का स्वभाव नहीं है। द्रव्य-इन्द्रियरूपी द्वार तो पाँच हैं; किन्तु क्षायोपशमिक ज्ञान से एकसमय में एक इन्द्रियद्वार से ही जाना जा सकता है। एकसाथ पाँचों इन्द्रियों द्वारा ज्ञान कार्य नहीं करता। यदि उपयोग रस के स्वाद में हो तो पास से सर्प भी चला जाय तो खबर नहीं होती। रायबहादुर का खिताब मिला हो, उससमय बिच्छू भी काट जाय तो ख्याल नहीं आता ।' रूप, शब्द, प्रशंसा का शौकीन होने पर भी एकसाथ में एक ही विषय का ज्ञान काम करता है, इसलिए अज्ञानी उनमें झपट्टा मारता है। स्थूलदृष्टि से देखने पर एक ही साथ जानता है - ऐसा लगता है; किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर क्षायोपशमिक ज्ञान एकसमय में एक ही इन्द्रिय द्वारा प्रवर्तित होता हुआ स्पष्टरूप से भासित होता है; इसलिए निमित्त की अपेक्षा रखकर होनेवाला ज्ञान आदरणीय नहीं है। इन्द्रियज्ञान पराधीन है, इसलिए वह आदरणीय नहीं है। इन्द्रियाँ दुश्मन हैं, वे जड़ हैं; आत्मा चेतन है । शरीर पुद्गल होने से रूपी है और आत्मा अरूपी है, शरीर अपवित्र है और आत्मा पवित्र है; इसप्रकार समझकर १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ ४१ २. वही, पृष्ठ ४२ ३. वही, पृष्ठ-४४
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy