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________________ गाथा-५४ २५३ प्रवचनसार गाथा-५४ विगत ५३वीं गाथा में यह कहा गया है कि ज्ञान और सुख मूर्त भी होते हैं और अमूर्त भी होते हैं तथा वे ज्ञान व सुख ऐन्द्रिय भी होते हैं और अतीन्द्रिय भी होते हैं। इनमें मूर्त व ऐन्द्रिय ज्ञान और सुख हेय हैं और अमूर्त-अतीन्द्रिय ज्ञान व सुख उपादेय हैं। ___ अब इस ५४वीं गाथा में अतीन्द्रियसुख के साधनभूत अतीन्द्रियज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है। जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं । सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं ।।५४।। (हरिगीत) अमूर्त को अर मूर्त में भी अतीन्द्रिय प्रच्छन्न को। स्व-पर को सर्वार्थ को जाने वही प्रत्यक्ष है ।।५४।। देखनेवाले आत्मा का जो ज्ञान अमूर्त को, मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय पदार्थों को और प्रच्छन्न पदार्थों को तथा स्व और पर - सभी को देखता है, जानता है; वह ज्ञान प्रत्यक्ष है। उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "स्व-पर में समाहित अमूर्त पदार्थ, मूर्त में अतीन्द्रिय पदार्थ और प्रच्छन्न (गुप्त) पदार्थों को अतीन्द्रियज्ञान अवश्य ही देखता-जानता है। अमूर्त में धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य आदि; मूर्त पदार्थों में अतीन्द्रिय परमाणु आदि; प्रच्छन्नों में - द्रव्य से प्रच्छन्न कालद्रव्यादि, क्षेत्र से प्रच्छन्न अलोकाकाश के प्रदेश आदि, काल से प्रच्छन्न भूतकाल व भविष्यकालीन पर्यायें तथा भाव से प्रच्छन्न में स्थूल पर्यायों में अन्तर्लीन सूक्ष्म पर्यायें - ये सब जो कि स्व और पर में विभक्त हैं; इन सबको अतीन्द्रियज्ञान जानता है; क्योंकि वह अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान है। जिसे अनंतशुद्धि का सद्भाव प्रगट हुआ - ऐसे चैतन्य सामान्य के साथ अनादिसिद्ध संबंधवाले एक ही अक्ष अर्थात् आत्मा के प्रति जो नियत है, अन्य इन्द्रियादि सामग्री को नहीं खोजता और अनंतशक्ति के सद्भाव के कारण अनन्तता को प्राप्त है; उस प्रत्यक्षज्ञान को उपर्युक्त समस्त पदार्थों को जानते हुए कौन रोक सकता है? जिसप्रकार दाह्याकार, दहन (अग्नि) का अतिक्रमण नहीं करते; उसीप्रकार ज्ञेयाकार, ज्ञान का अतिक्रमण नहीं कर सकते । तात्पर्य यह है कि सभी ज्ञेय अतीन्द्रियज्ञान में प्रत्यक्ष हैं ही।" यद्यपि आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; तथापि वे इस गाथा की टीका में एक ऐसा प्रश्न उपस्थित करते हैं; जो प्रायः सभी पाठकों के हृदय में सहजभाव से उत्पन्न होता है। वह प्रश्न यह है कि जब ज्ञानाधिकार समाप्त हो गया और सुखाधिकार आरंभ हो गया तो फिर यहाँ ज्ञान की चर्चा क्यों की जा रही है, यहाँ तो सुख की चर्चा की जानी चाहिए। ___मेरे चित्त में भी यह प्रश्न अनेकबार उपस्थित हुआ है और बहुत कुछ मंथन के उपरान्त मैं इसी निर्णय पर पहुँचा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने मूल ग्रंथ में तो अधिकारों का वर्गीकरण किया नहीं; अधिकारों का वर्गीकरण तो टीकाकारों ने किया है। आचार्य कुन्दकुन्द तो सहजभाव से एकधारा में ही प्रतिपादन करते गये हैं; अत: उनके चित्त में ऐसा प्रश्न उपस्थित ही नहीं हुआ कि सुखाधिकार में ज्ञान की चर्चा क्यों ? ___आचार्य जयसेन को आचार्य अमृतचन्द्रकृत वर्गीकरण उपलब्ध था और उन्होंने भी थोड़े-बहुत फेरफार के साथ लगभग उसी वर्गीकरण को स्वीकार कर लिया।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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