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________________ २५० प्रवचनसार अनुशीलन झुकती है, वह ज्ञान (पर्याय) भी मिथ्या है, हेय है। स्वभाव तरफ झुकनेवाले ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं।" यहाँ पूर्णज्ञान और पूर्णसुख की बात है। सर्वज्ञ का अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख पूर्ण है - ऐसा निर्णय करनेवाले की दृष्टि स्वभावसन्मुख होती है; उसे अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख आंशिक प्रगट होता है, वह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। जैसे अतीन्द्रिय ज्ञान और इन्द्रियज्ञान- ऐसे दो प्रकार हैं; वैसे ही अतीन्द्रिय सुख और इन्द्रियसुख - ये दो प्रकार हैं। उसमें अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख उत्कृष्ट है। इसप्रकार उसकी उपादेयता जानना । २ जैसे इन्द्रियज्ञान क्रम से प्रवर्तता है, युगपद् नहीं होता; वैसे ही इन्द्रिय सुख भी क्रम से प्रवर्तता है; युगपद् नहीं होता अर्थात् जब रूप के सुख की कल्पना होती है, तब स्पर्श के सुख की कल्पना नहीं होती। पर्याय बुद्धिवाला अंश का अवलम्बन करता है; इसीलिए उसे रस खाते समय जब रस का हर्ष होता है, उस समय उसे रूप का हर्ष नहीं होता और रूप के समय कमाई का हर्ष नहीं होता । इसप्रकार वह दुःख का ही अनुभव करता है। वह पर तरफ का झुकाव एकान्त दुःख है और स्व तरह का झुकाव एकान्त सुख है । पर तरफ में एकान्त पराधीनता है, किंचित् भी सुख अथवा स्वाधीनता नहीं है। आत्मा की पूर्णदशा होनेपर जानने में कुछ भी शेष (बाकी) नहीं रहता। अपूर्णदशा में स्पर्श, रस आदि में क्या होगा ? - ऐसी देखने की आकुलता होती है; किन्तु पूर्णज्ञान होनेपर आकुलता नहीं रहती । इसप्रकार अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख उपादेय है - ऐसा निर्णय होनेपर रुचि स्वभाव तरफ झुकती है। इस आत्मा का ज्ञानस्वभाव कायमी है। उसकी पूर्णदशा अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख अंगीकार करने लायक है - ऐसा निर्णय करने जाय तो इन्द्रियज्ञान, इन्द्रियसुख और इन्द्रियों के निमित्त की रुचि छूटकर स्वभाव तरफ का झुकाव होता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३ २. वही, पृष्ठ ४ ३. वही, पृष्ठ-७ गाथा-५३ २५१ - आत्मा वस्तु है; उसका ज्ञान और आनन्द जिनकी पर्याय में प्रगट हुआ है - ऐसे केवली भगवान परिपूर्ण हैं ऐसा निर्णय करने पर ज्ञानस्वभाव की उपादेयबुद्धि होती है तथा इन्द्रियज्ञान और विकार में सहज ही हेयबुद्धि हो जाती है। ' अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख नित्य प्रवर्तमान निःप्रतिपक्ष और हानिवृद्धि से रहित है; इसलिए उपादेय है। केवलज्ञानी भगवान का ज्ञान और आनन्द सदृश रहता है; इसलिए उसे नित्य कहते हैं। वह बदलता तो है; किन्तु सदृश की अपेक्षा से उसे नित्य कहा है। इन्द्रिय आनन्द में एक के बाद एक कल्पना होती है; क्योंकि प्रतिष्ठा (आबरु) की और खाने की इच्छा क्रमक्रम से होती है। २" गाथा और उसकी टीकाओं में इन्द्रियज्ञान और इन्द्रियसुख को हेय तथा अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख को उपादेय सिद्ध किया गया है। अपने इस सफल प्रयास में उन्होंने अनेक हेतु प्रस्तुत किए हैं। इन्द्रियज्ञान व इन्द्रियसुख पराधीन हैं; क्योंकि इन्द्रियज्ञान को कर्मों के क्षयोपशम की व प्रकाशादि की अधीनता है और इन्द्रियसुख को भोगसामग्री की पराधीनता है। अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख पूर्णतः स्वाधीन हैं; क्योंकि अतीन्द्रियज्ञान में इन्द्रियों और प्रकाशादि की पराधीनता नहीं है और अतीन्द्रियसुख में भोगसामग्री संबंधी पराधीनता नहीं है। इसीप्रकार इन्द्रियज्ञान व इन्द्रियसुख कभी-कभी होते हैं, क्रमश: होते हैं, प्रतिपक्ष सहित हैं और हानि-वृद्धि सहित भी हैं; किन्तु अतीन्द्रियज्ञान व अतीन्द्रियसुख सदा रहने से नित्य हैं, एकसाथ प्रवृत्त होते हैं, प्रतिपक्ष से रहित हैं और हानि-वृद्धि से भी रहित हैं। यही कारण है कि इन्द्रियज्ञान व इन्द्रियसुख हेय हैं और अतीन्द्रियज्ञान व अतीन्द्रियसुख उपादेय हैं। • १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ- १७ २. वही, पृष्ठ- १८
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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