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________________ ९० प्रवचनसार अथेन्द्रियसौख्यसाधनीभूतमिन्द्रियज्ञानं हेय प्रणिन्दति । अथेन्द्रियाणां स्वविषयमात्रेऽपि युगपत्प्रवृत्त्यसंभवाद्धेयमेवेन्द्रियज्ञानमित्यवधारयति - - जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तं ण जाणादि ।। ५५ ।। फासो रसोय गंधो वण्णो सद्दो य पोग्गला होंति । अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हंति ।। ५६ ।। जीवः स्वयममूर्ती मूर्तिगतस्तेन मूर्तेन मूर्तम् । अवगृह्य योग्यं जानाति वा तन्न जानाति ।। ५५ ।। स्पर्शो रसश्च गन्धो वर्ण: शब्दश्च पुद्गला भवन्ति । अक्षाणां तान्यक्षाणि युगपत्तान्नैव गृह्णन्ति ।।५६।। शिष्य की शंका का समाधान करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि जो अतीन्द्रियज्ञान पहले कहा गया है, वही अभेदनय से सुख है - ऐसा बताने के लिए यहाँ ज्ञान की बात की है । अथवा ज्ञानाधिकार में ज्ञान की मुख्यता होने से हेयोपादेय का विचार नहीं किया था; अत: ज्ञान व सुख में हेयोपादेय बताने के लिए यहाँ सुख के साथ ज्ञान की भी चर्चा कर रहे हैं। " उक्त गाथा में कही गई मूल बात तो यही है कि अतीन्द्रियज्ञान (केवलज्ञान) में सभी स्वपर और मूर्त-अमूर्त पदार्थ अपनी सभी स्थूल सूक्ष्म पर्यायों के साथ एक समय में ही प्रत्यक्ष जानने में आते हैं ।।५४।। विगत गाथा में यह बताया गया था कि अतीन्द्रियज्ञान, अतीन्द्रियसुख का साधन है; अत: उपादेय है और अब इन गाथाओं में यह बताया जा रहा है कि इन्द्रियज्ञान, इन्द्रियसुख का साधन है और अपने विषयों में भी एकसाथ प्रवृत्ति नहीं करता है; इसलिए हेय है । गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) मूर्ततनगत अमूर्त जिय मूर्तार्थ जाने मूर्त से । अवग्रहादिकपूर्वक अर कभी जाने भी नहीं ॥ ५५ ॥ पौद्गलिक स्पर्श रस गंध वर्ण अर शब्दादि को | भी इन्द्रियाँ इक साथ देखो ग्रहण कर सकती नहीं ॥५६॥
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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