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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार प्रत्यक्षं हि ज्ञानमुद्भिन्नानन्तशुद्धिसन्निधानमनादिसिद्धचैतन्यसामान्यसंबंधमेकमेवाक्षनामानमात्मानं प्रतिनियतमितरांसामग्रीममृगयमाणमनन्तशक्तिसद्भावतोऽनन्ततामुपगतं दहनस्येव दाह्याकाराणांज्ञानस्य ज्ञेयाकाराणामनतिक्रमाद्यथोदितानुभावमनुभवत्तत् केन नाम निवार्येत । अतस्तदुपादेयम्।।५४॥ जिसे अनंतशुद्धि का सद्भाव प्रगट हुआ- ऐसे चैतन्य सामान्य के साथ अनादिसिद्ध संबंधवाले एक ही अक्ष अर्थात् आत्मा के प्रति जो नियत है, अन्य इन्द्रियादि सामग्री को नहीं खोजता और अनंतशक्ति के सद्भाव के कारण अनन्तता को प्राप्त है; उस प्रत्यक्षज्ञान को उपर्युक्त समस्त पदार्थों को जानते हुए कौन रोक सकता है ? जिसप्रकार दाह्याकार, दहन (अग्नि) का अतिक्रमण नहीं करते; उसीप्रकार ज्ञेयाकार, ज्ञान का अतिक्रमण नहीं कर सकते । तात्पर्य यह है कि सभीज्ञेय अतीन्द्रियज्ञान में प्रत्यक्ष ही हैं। इसलिए वह अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है।' यद्यपि आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; तथापि वे इस गाथा की टीका में एक ऐसा प्रश्न उपस्थित करते हैं; जो प्राय: सभी पाठकों के हृदय में सहजभाव से उत्पन्न होता है। वह प्रश्न यह है कि जब ज्ञानाधिकार समाप्त हो गया और सुखाधिकार आरंभ हो गया तो फिर यहाँ ज्ञान की चर्चा क्यों की जा रही है ? यहाँ तो सुख की चर्चा की जानी चाहिए। मेरे चित्त में भी यह प्रश्न अनेकबार उपस्थित हुआ है और बहुत कुछ मंथन के उपरान्त मैं इसी निर्णय पर पहँचा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने मल ग्रंथ में तो अधिकारों का वर्गीकरण किया नहीं; अधिकारों का वर्गीकरण तो टीकाकारों ने किया है। आचार्य कुन्दकुन्द तो सहजभाव से एक धारा में ही प्रतिपादन करते गये हैं; अत: उनके चित्त में ऐसा प्रश्न उपस्थित ही नहीं हुआ कि सुखाधिकार में ज्ञान की चर्चा क्यों ? । आचार्य जयसेन को आचार्य अमृतचन्द्रकृत वर्गीकरण उपलब्ध था और उन्होंने भी थोड़े-बहुत फेरफार के साथ लगभग उसी वर्गीकरण को स्वीकार कर लिया; पर इस गाथा की टीका में उक्त प्रश्न उठाकर आचार्य जयसेन ने जो समाधान प्रस्तुत किया है; वह इसप्रकार है - ___ “यहाँ शिष्य कहता है कि ज्ञानाधिकार तो पहले ही समाप्त हो गया, यह तो सुखाधिकार चल रहा है, इसमें तोसुख की हीचर्चा करना चाहिए; फिर भी यहाँज्ञान की चर्चा क्योंकीजा रही है?
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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