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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार ये नैव हि संजाता ये खलु नष्टा भूत्वा पर्यायाः। ते भवन्ति असद्भूताः पर्याया ज्ञानप्रत्यक्षाः ।।३८।। यदि प्रत्यक्षोऽजात: पर्याय: प्रलयितश्च ज्ञानस्य । न भवति वा तत् ज्ञानं दिव्यमिति हि के प्ररूपयन्ति ।।३९।। ये खलु नाद्यापि संभूतिमनुभवन्ति, ये चात्मलाभमनुभूय विलयमुपगतास्ते किलासद्भूता अपि परिच्छेदं प्रति नियतत्वात् ज्ञानप्रत्यक्षतामनुभवन्तः शिलास्तम्भोत्कीर्णभूतभाविदेववदप्रकम्पार्पितस्वरूपाः सद्भूता एव भवन्ति ।।३८।। यदि खल्वसंभावितभावं संभावितभावं च पर्यायजातमप्रतिघविजृम्भिताखण्डितप्रतापप्रभुशक्तितया प्रसभेनैव नितान्तमाक्रम्यक्रमसमर्पितस्वरूपसर्वस्वमात्मानं प्रतिनियतं ज्ञानं न करोति, तदा तस्य कुतस्तनी दिव्यता स्यात् । अत: काष्ठाप्राप्तस्य परिच्छेदस्य सर्वमेतदुपपन्नम्।।३९।। उक्त गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “जो पर्यायें अभीतक उत्पन्न नहीं हुईं और जो उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं; वे पर्यायें अविद्यमान होने पर भी ज्ञान के प्रति नियत होने से ज्ञान में प्रत्यक्ष वर्तती हुई पाषाण स्तम्भ में उत्कीर्ण भूत और भावी तीर्थंकर देवों की भांति अपने स्वरूप को ज्ञान में अर्पित करती हुई विद्यमान ही हैं। जिन्होंने अस्तित्व का अनुभव नहीं किया और जिन्होंने अस्तित्व का अनुभव कर लिया है; ऐसी अनुत्पन्न और नष्ट पर्यायों को यदिज्ञान अपनी निर्विघ्न, अखंडित प्रतापयुक्त प्रभुशक्ति से बलात् प्राप्त करे तथावे पर्यायें अपने स्वरूप सर्वस्व को अक्रम से अर्पित करें - इसप्रकार उन्हें अपने प्रति नियत न करें, उन्हें प्रत्यक्ष न जाने; तो उस ज्ञान की दिव्यता क्या है ? इसकारण यह कहा गया है कि पराकाष्ठा को प्राप्त ज्ञान के लिए यह सब योग्य है।" इन गाथाओं में न केवल केवलज्ञान की महिमा बताई गई है; अपितु केवलज्ञान का स्वरूप भी स्पष्ट किया गया है। यद्यपि इन गाथाओं में बताई गई बात हाथ पर रखे हुए आंवले के समान स्पष्ट है; तथापि कुछ लोग शंकायें-आशंकायें व्यक्त करते हैं। उन्हें लगता है कि इसे मान लेने पर तो 'सब कुछ निश्चित है' - यह सिद्ध हो जावेगा । ऐसी स्थिति में हमारे हाथ में तो कुछ रहेगा ही नहीं। उक्त संदर्भ में मैंने क्रमबद्धपर्याय नामक कृति में विस्तार से चर्चा की है। जिज्ञासु पाठक उसका स्वाध्याय गहराई से अवश्य करें ।।३८-३९ ।।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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