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________________ ५६ प्रवचनसार अथासद्भूतपर्यायाणां कथंचित्सद्भूतत्वं विदधाति । अथैतदैवासद्भूतानां ज्ञानप्रत्यक्षत्वं दृढ़यति - जेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया । ते होंति असब्भूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा ।। ३८ ।। जदि पच्चक्खमजादं पज्जायं पलयिदं च णाणस्स । ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति ।। ३९ ।। तात्पर्य यह है कि उनको जानना ज्ञान की मजबूरी नहीं है और उनका ज्ञान में झलकना भी उन ज्ञेयों के लिए कोई विपत्ति नहीं है। ज्ञान का जानना और ज्ञेयों का जानने में आना दोनों का सहज स्वभाव है, उनकी स्वरूपसम्पदा है। ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर कि जब वे अभी हैं ही नहीं, तब उनको जानना कैसे संभव है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि जब हमारे क्षयोपशमज्ञान में भूत और भविष्य की बातें जान ली जाती हैं तो फिर केवलज्ञान में जान लेने पर क्या आपत्ति हो सकती है ? आत्मा की ज्ञानशक्ति और पदार्थों की ज्ञेयत्वशक्ति का ही यह कमाल है । यहाँ चित्रपट के उदाहरण से ज्ञानशक्ति और आलेख्याकारों के उदाहरण से ज्ञेयत्वशक्ति के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है || ३७ ॥ विगत ३७ वीं गाथा में यह कहा है कि केवलज्ञान में सभी द्रव्यों की अतीत और भावी पर्यायें भी वर्तमान पर्यायों के समान ही झलकती हैं और अब ३८ व ३९वीं गाथा में यह कह रहे हैं कि सभी द्रव्यों की भूत और भावी असद्भूत पर्यायें ज्ञान में विद्यमान ही हैं; इसलिए वे कथंचित् सद्भूत भी हैं तथा जिस ज्ञान में भूत और भावी असद्भूत पर्यायें ज्ञात न हों, उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा ? गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं। असद्भावी वे सभी पर्याय ज्ञानप्रत्यक्ष हैं ||३८|| पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या हो गई हैं नष्ट जो । फिर ज्ञान की क्या दिव्यता यदि ज्ञात होवें नहीं वो ||३९|| जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं या उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं; वे सभी अविद्यमान पर्यायें ज्ञान में तो प्रत्यक्ष ही हैं, विद्यमान ही हैं। यदि अनुत्पन्न तथा नष्ट पर्यायें ज्ञान (केवलज्ञान) में प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा ?
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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