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________________ प्रवचनसार तथापि समस्त ज्ञेयों को जानने के कारण आत्मा और ज्ञान सर्वगत हैं और समस्त ज्ञेय आत्मा में प्रतिबिम्बित हो जाने के कारण वे सभी ज्ञेय ज्ञानगत हैं, आत्मगत हैं।।३०-३१।। विगत गाथाओं में सबको देखने-जानने के कारण आत्मा को सर्वगत सिद्ध किया गया है। अथैवं ज्ञानिनोऽथैः सहान्योन्यवृत्तिमत्त्वेऽपि परग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावेन सर्वं पश्यतोऽध्यवस्यतश्चात्यन्तविविक्तत्वं भावयति - गेण्हदिणेवण मुंचदिण परं परिणमदि केवली भगवं। पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ॥३२॥ गृह्णाति नैव न मुञ्चति न परं परिणमति केवली भगवान् । पश्यति समन्तत: स जानाति सर्वं निरवशेषम् ।।३२।। अयं खल्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्यग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावात्स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञानस्वरूपेण विपरिणम्य निष्कम्पोन्मज्जज्योतिर्जात्यमणिकल्पो भूत्वाऽवतिष्ठमानः समन्ततः स्फुरितदर्शनज्ञानशक्तिः, समस्तमेव निःशेषतयात्मानमात्मनात्मनि संचेतयते। अथवा युगपदेव सर्वार्थसार्थकसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभावितग्रहणमोक्षणलक्षणक्रियाविराम: प्रथममेव समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुनः परमाकारान्तरमपरिणममानः समन्ततोऽपि विश्वमशेषं पश्यति जानातिच एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव ।।३२।। अब इस गाथा में यह बताते हैं कि सबको देखते-जानते हुए भी यह आत्मा बाह्य ज्ञेय पदार्थों से भिन्न ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) केवली भगवान पर ना ग्रहे छोड़े परिणमें। चहुं ओर से सम्पूर्णत: निरवशेष वे सब जानते||३२|| केवलीभगवान पर को ग्रहण नहीं करते, छोड़ते नहीं, पररूप परिणमित नहीं होते; परन्तु निरवशेषरूप से सम्पूर्ण आत्मा को या सभीज्ञेय पदार्थों को सर्व ओर से देखते-जानते हैं। उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "स्वभाव सेही परद्रव्य के ग्रहण-त्याग का तथा परद्रव्यरूप परिणमित होने का अभाव होने से यह आत्मास्वतत्त्वभूत केवलज्ञानरूपसे परिणमित होकर, निष्कंपज्योतिवाले मणि के समान जिसके सर्वात्मप्रदेशों से दर्शन-ज्ञान-शक्ति स्फुरित है और जो परिपूर्ण आत्मा को आत्मा से सम्पूर्णत: अनुभव करता है अथवा एक साथ ही सर्वपदार्थों के समूह का साक्षात्कार करने के कारण ज्ञप्तिपरिवर्तन का अभाव होने से ग्रहण-त्याग क्रिया से विराम को प्राप्त पहले
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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