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________________ ४६२ अथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटयति - हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु । सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ।। २३७ ।। न ह्यागमेन सिद्ध्यति श्रद्धान यद्यपि नास्त्यर्थेषु। श्रद्दधान अर्थानसयंतो वा न निर्वाति ।। २३७।। श्रद्धानशून्येनागमजनितेन ज्ञानेन, तदविनाभाविना श्रद्धानेन च संयमशून्येन, न तावत्सिद्ध्यति । तथाहि - आगमबलेन सकलपदार्थान् विस्पष्टं तर्कयन्नपि, यदि सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं न तथा प्रत्येति, तदा यथोदितात्मन: श्रद्धानशून्यतया यथोदितमात्मानमननुभवन् कथं नाम ज्ञेयनिमग्नो ज्ञानविमूढो ज्ञानी स्यात् । अज्ञानिनश्च ज्ञेयद्योतको भवन्नप्यागमः किं कुर्यात् । ततः श्रद्धानशून्यादागमान्नास्ति सिद्धिः । प्रवचनसार 'आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयम की एकता ही मोक्षमार्ग है' - विगत गाथा में यह समझाने के उपरान्त अब इस गाथा में इसी बात को नास्ति से समझाते हैं । कहते हैं कि आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व के अभाव में मोक्षमार्ग घटित नहीं होता । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) जिनागम से अर्थ का श्रद्धान ना सिद्धि नहीं । श्रद्धान हो पर असंयत निर्वाण को पाता नहीं ||२३७ || यदि आगम से पदार्थों का श्रद्धान न हो तो मुक्ति की प्राप्ति नहीं होगी और संयम के बिना पदार्थों का श्रद्धान करनेवाले को भी मुक्ति प्राप्त नहीं होगी । आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं 'श्रद्धानशून्य आगमज्ञान से सिद्धि नहीं होती और आगमज्ञानपूर्वक होनेवाले श्रद्धान से भी संयमशून्य व्यक्ति को सिद्धि प्राप्त नहीं होती । अब इसी बात को विस्तार से स्पष्ट करते हैं - आगम के आधार पर सम्पूर्ण पदार्थों का सतर्क विशेष स्पष्टीकरण करता हुआ भी यदि कोई व्यक्ति सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों से मिलित विशद एक ज्ञानाकार आत्मा की प्रतीति नहीं करता तो आत्मा के श्रद्धान से शून्य होने के कारण, आत्मा का अनुभव नहीं करनेवाला वह ज्ञेयनिमग्न ज्ञानविमूढ जीव ज्ञानी कैसे हो सकता है, ज्ञेयों का प्रकाशक आगम उक्त अज्ञानी जीव के लिए क्या कर सकता है ? अत: यह सुनिश्चित ही है कि श्रद्धान शून्य आगमज्ञान से कुछ भी सिद्धि नहीं होती ।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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