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________________ चरणानुयोगसूचकचूलिका : मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार स्वपरविभागाभावात् कायकषायैः, सहैक्यमध्यवसतोऽनिरुद्धविषयाभिलाषतया षड्जीवानिकायघातिनो ' 'भूत्वा सर्वतोऽपि कृतप्रवृत्तेः सर्वतो निवृत्त्यभावात्तथा परमात्मज्ञानाभावाद् ज्ञेयचक्रमाक्रमणनिरर्गलज्ञप्तितया ज्ञानरूपात्मतत्त्वैकाग्रप्रवृत्त्यभावाच्च संयम एव न तावत् सिद्ध्येत्। असिद्धसंयमस्य तु सुनिश्चितैकाग्र्यगतत्वरूपं मोक्षमार्गापरनाम श्रामण्यमेव न सिद्धयेत्। अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसयतत्वानां यौगपद्यस्यैव मोक्षमार्गत्वं नियम्येत् ।।२३६।। और कषायों के साथ एकता के अध्यवसायी वे जीव विषयों की अभिलाषा का निरोध नहीं होने से छह काय के जीवों के हिंसक होकर सब ओर से प्रवृत्ति करते हैं; इसलिए उनके सर्वतः निवृत्ति का अभाव है । तात्पर्य यह है कि उनके किसी भी ओर से किंचित्मात्र भी निवृत्ति नहीं है । दूसरे परमात्मज्ञान के अभाव के कारण ज्ञेयों को क्रमशः जाननेवाली निरर्गल ज्ञप्ति होने से ज्ञानरूप आत्मतत्त्व में एकाग्रता की प्रवृत्ति का अभाव है। इसकारण उनके भी संयम सिद्ध नहीं होता । इसप्रकार उन्हें जिसका दूसरा नाम मोक्षमार्ग है - ऐसा सुनिश्चित एकाग्र परिणतिरूप श्रामण्य ही सिद्ध नहीं होता। इससे यह नियम सिद्ध होता है कि आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयम - इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है । ' 99 आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में गाथार्थ तो गाथा और तत्त्वप्रदीपिका टीका के अनुसार ही करते हैं, तथापि 'तथाहि' लिखकर जो स्पष्टीकरण करते हैं; वह इसप्रकार है - 'दोष रहित अपना आत्मा ही उपादेय है' - ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व जिसे नहीं है, वह परमागम के बल से ज्ञानरूप आत्मा को स्पष्ट जानता हुआ भी सम्यग्दृष्टि नहीं है और ज्ञानी भी नहीं है । इसप्रकार इन दोनों के अभाव से पंचेन्द्रिय विषयों की इच्छा और षट्काय के जीवों के घात से निवृत्त होने पर भी वह संयत नहीं है । - ऐसा लिखकर भी वे अन्त में निष्कर्ष इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं. - 66 ४६१ - “इससे यह निश्चित हुआ कि परमागम का ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतपना - इन तीनों का युगपद्मना (एकसाथ होना) ही मुक्ति का मार्ग है ।' उक्त गाथा का सार मात्र इतना ही है कि जिस श्रमण को स्याद्वादमयी आगम के अभ्यास और आत्मानुभूतिपूर्वक आत्मज्ञान नहीं है; वह श्रमण भले ही जिनागमानुसार आचरण करे, व्रतादि का पालन करे, उपवासादि तपश्चरण करे; तथापि उसके संयम होना संभव नहीं है, सम्यक्चारित्र होना संभव नहीं है और इन तीनों की एकता बिना मोक्षमार्ग नहीं हो सकता; अत: उक्त श्रमण के मोक्षमार्ग भी नहीं है; इसकारण इनके श्रामण्य भी नहीं है ।। २३६ ।।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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