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________________ ४०६ प्रवचनसार यथाजातरूपवाले स्वरूप को, एक को एकाग्रतया अवलम्बित करके रहता हुआ उपस्थित होता है और उपस्थित होता हुआ, सर्वत्र सम्यग्दृष्टिपने के कारण साक्षात् श्रमण होता है ।" अथाविच्छिन्नसामायिकाधिरूढोऽपि श्रमणः कदाचिच्छेदोपस्थापनमर्हतीत्युपदिशति - वदसमिदिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ २०८ ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि । । २०९।। व्रतसमितीन्द्रियरोधो लोचावश्यकमचेलमस्नानम् । क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजनमेकभक्तं च ।। २०८ ।। एते खलु मूलगुणाः श्रमणानां जिनवरैः प्रज्ञप्ताः । तेषु प्रमत्तः श्रमणः छेदोपस्थापको भवति ।। २०९ ।। इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि दीक्षार्थी अपने गुरु दीक्षाचार्य को अत्यन्त विनयपूर्वक नमस्कार करके उनसे मुनि जीवन में होनेवाले व्रत और क्रियाओं के बारे में सुनकर समझता है, फिर आत्मा के समीप उपस्थित होता हुआ अर्थात् आत्मध्यान करता हुआ, द्रव्यलिंग और भावलिंग - दोनों को धारण करता हुआ अर्थात् सम्यग्दर्शन सहित नग्न दिगम्बर दशारूप बाह्याचरण को धारण करता हुआ साक्षात् श्रमण बन जाता है ।। २०७ ।। जब कोई सम्यग्दृष्टि दीक्षार्थी मुनिदीक्षा लेता है, तब अपने गुरु से संबंधित बातों को समझकर, नग्न दिगम्बर दशा धारण कर, केशलुंचन आदि दीक्षा संबंधी सभी प्रक्रिया को पार कर, आत्मा में उपस्थित हो जाता है, आत्मलीन हो जाता है, सप्तम गुणस्थान की भूमिका को प्राप्त हो जाता है । यह बात विगत गाथा में समझाकर अब इन गाथाओं में यह कहते हैं कि आत्मध्यान से च्युत होकर जब यह शुभोपयोग में आता है, छटवें गुणस्थान में आता है तो अट्ठाईस मूलगुणों के शुभभाव में आता हुआ छेदोपस्थापक होता है । गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) व्रत समिति इन्द्रिय रोध लुंचन अचेलक अस्नान व्रत । ना दन्त-धोवन क्षितिशयन अर खड़े हो भोजन करें || २०८ ||
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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