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________________ ३९७ चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र के समान सभी को पृथक्पृथक् संबोधित तो नहीं करते हैं; तथापि सभी को संबोधित करने की चर्चा सामूहिक रूप से अवश्य कर देते हैं। विशेष बात यह है कि वे बन्धुवर्ग का अर्थ गोत्रवाले करते हैं और यह भी स्पष्ट करते हैं कि यदि इन सबकी अनुमति बिना दीक्षा लेना संभव नहीं होता हो तो फिर कोई भी दीक्षित ही नहीं हो सकेगा। उनके स्पष्टीकरण का भाव इसप्रकार है - “यहाँ जो गोत्र आदि के साथ क्षमाभाव का व्याख्यान किया है, वह अतिप्रसंगअमर्यादा के निषेध के लिए किया है। ऐसा नियम नहीं है कि उनके क्षमाभाव के बिना दीक्षा ही संभव न हो; क्योंकि प्राचीनकाल में भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि अधिकतर राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की थी और उनके परिवार में जो कोई मिथ्यादृष्टि हुए; उन्होंने उन पर उपसर्ग किया था। दूसरी बात यह है कि यदिवे गोत्रवालों को अपनामानते हैं और उन्हें ने कायन करते हैं तो तपस्वी ही नहीं हैं; क्योंकि दीक्षा लेने पर भीगोत्र आदि में ममकार करते हैं तोवे मुनि ही नहीं हैं।" उक्त सम्पूर्ण मंथन का सार यह है कि जिसे मुनिधर्म की दीक्षा लेनी है; वह सबसे पहले कुटुम्बीजनों को इसकी जानकारी देवें, माता-पिता और स्त्री-पुत्रादि से अपने को छुड़ावे। ___ मूल गाथा में आपृच्छ और विमोचित शब्दों का प्रयोग है। उसमें भी ऐसा भेद किया गया है कि बन्धुवर्ग से पूछकर और माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि से छुड़ाकर; आज्ञा लेने की तो बात ही नहीं है। हाँ, यह बात अवश्य है कि पूछने में से आज्ञा लेने की ध्वनि निकाली जा सकती है, पर उसमें भी एक बात यह है कि पूछने की बात माता-पिता और पत्नी-पुत्र से नहीं है, परिवारवालों से है। आज्ञा की बात होती तो वह माता-पिता से ही हो सकती थी। इसप्रकार हम देखते हैं कि आज्ञा की बात तो है ही नहीं; अनुमति की बात स्वीकार करने में भी यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि और कुटुम्बीजनों ने अनुमति नहीं दी तो क्या होगा? यह प्रश्न सभी टीकाकारों के चित्त को आन्दोलित करता रहा है। आचार्य अमृतचन्द्र ने तो इसका समाधान अनुमति लेने की भाषा को प्रस्तुत करके दिया है, जिसमें दीक्षार्थी एक प्रकार से सूचना ही देता है; निश्चय से तो उनके साथ किसी भी प्रकार के संबंध को स्वीकार ही नहीं करता। अबतक राग के कारण जो व्यवहारादिक संबंध था; राग टूट जाने से अब
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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