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________________ ३९६ प्रवचनसार जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है; तथापि मैं तुझे तबतक के लिए अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध नहीं कर लेता। ___ ततो हि श्रामण्यार्थी प्रणतोऽनुगृहीतश्च भवति । तथाहि - आचरिताचारितसमस्तविरतिप्रवृत्तिसमानात्मरूपश्रामण्यत्वात् श्रमणं, एवंविधश्रामण्याचरणाचारणप्रवीणत्वात् गुणाढ्यं, सकललौकिकजननिःशंङ्कसेवनीयत्वात् कुलक्रमागतक्रौर्यादिदोषवर्जितत्वाच्च कुलविशिष्टं, अन्तरङ्गशुद्धरूपानुमापकबहिरङ्गशुद्धरूपत्वात्रूपविशिष्टं, शैशववार्धक्यकृतबुद्धिविक्लवत्वा भावाद्यौवनोद्रेकविक्रियाविविक्तबुद्धित्वाच्च वयोविशिष्टं, नि:शेषितयथोक्तश्रामण्याचरणाचारणविषयपौरुषेयदोषत्वेन मुमुक्षुभिरभ्युपगततरत्वात् श्रमणैरिष्टतरं च गणिनं शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसाधकमाचार्यं शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसिद्धया मामनुगृहाणेत्युपसर्पन प्रणतो भवति । एवमियंतेशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसिद्धिरिति तेन प्रार्थितार्थेन संयुज्यमानोऽनुगृहीतोभवति ।।२०३।। अहो समस्त इतर (वीर्याचार के अतिरिक्त अन्य) आचार में प्रवृत्ति करानेवाली स्वशक्ति के अगोपनरूपवीर्याचार ! मैं निश्चय से यह जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है; तथापि मैं तुझे तबतक के लिए अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध नहीं कर लेता। इसप्रकार यह दीक्षार्थी ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करता है। इसके बाद वह दीक्षार्थी प्रणत और अनुगृहीत होता है। इसका विशेष स्पष्टीकरण इसप्रकार है - आचरण करने और करानेवाले समस्त विभूति की प्रवृत्ति के समान आत्मरूप श्रामण्यपने के कारण जो श्रमण है; ऐसे श्रामण्य के आचरण करने और कराने में प्रवीण होने से जो गुणाढ्य हैं; सर्व लौकिक जनों के द्वारा नि:शंकतया सेवा करने योग्य होने से और कुलक्रमागत क्रूरतादि दोषों से रहित होने से जो कुलविशिष्ट हैं; अंतरंग शुद्ध रूप का अनुमान करानेवाला बहिरंग शुद्धरूप होने से जो रूपविशिष्ट हैं; बालकत्व और वृद्धत्व से होनेवाली बुद्धिविक्लवता का अभाव होने से तथा यौवनोद्रेक की विक्रिया से रहित बुद्धि होने से जो वयविशिष्ट हैं; और यथोक्त श्रामण्य का आचरण न कराने संबंधी पौरुषेय दोषों को पूर्णतः नष्ट कर देने से प्रायश्चित्तादि के लिए मुमुक्षुओं द्वारा जिनका बहुत आश्रय लिया जाता है; इसलिए जो श्रमणों को अति इष्ट है - ऐसे गणी के निकट अर्थात् शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि के साधक आचार्य के निकट शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धिरूप सिद्धि के लिए मुझे अनुगृहीत करों' - ऐसा कहकर दीक्षार्थी प्रणत होता है और 'तुझे शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धिरूप सिद्धि हो' - ऐसा कहकर गणी आचार्य द्वारा अनुगृहीत होता है।"
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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