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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ३७७ जहाज पर ही आना पड़ता है; क्योंकि अन्य आश्रय का अभाव है। महाकवि सूरदासजी ने भी लिखा है - जैसे उड़ि जहाज को पंक्षी फिर जहाज पर आवे इसीप्रकार उक्त तत्त्वज्ञान के आधार पर जब यह जान लिया जाता है कि अपने आत्मा को छोड़कर अन्य कोई पदार्थ आश्रय करने योग्य नहीं है, ध्यान करने योग्य नहीं है; क्योंकि उनके ध्यान से अशान्ति के अतिरिक्त कुछ भी हाथ लगनेवाला नहीं है; तब मन अन्य आश्रय का अभाव होने से आत्मा में ही लगता है। यदि मन कहीं जाता भी है तो फिर लौटकर आत्मा पर ही आता है। वस्तुत: बात यह है कि वास्तविक सुख-शान्ति आत्मा के आश्रय में ही है, आत्मा के ज्ञान-ध्यान में ही है; अत: एकमात्र आश्रय करने योग्य भी आत्मा ही है।।१९६|| विगत गाथा में ज्ञानी श्रावक और मुनिराजों के होनेवाले ध्यान की चर्चा करके अब इन आगामी गाथाओं में सर्वज्ञ भगवान के ध्यान की चर्चा करते हैं; यह बताते हैं कि केवलज्ञानी किसका ध्यान करते हैं ? गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - —अथोपलब्धशुद्धात्मा सकलज्ञानी किं ध्यायतीति प्रश्नमासूत्रयति। अथैतदुपलब्धशुद्धात्मा सकलज्ञानी ध्यायतीत्युत्तरमासूत्रयति - णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्ह। णेयंतगदो समणो झादि कमटुं असंदेहो।।१९७।। सव्वाबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो। भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं ।।१९८।। निहतघनघातिकर्मा प्रत्यक्षं सर्वभावतत्त्वज्ञः। ज्ञेयान्तगत: श्रमणो ध्यायति कमर्थमसंदेहः ।।१९७।। सर्वाबाधवियुक्तः समन्तसर्वाक्षसौख्यज्ञानाढ्यः । भूतोऽक्षातीतो ध्यायत्यनक्षः परं सौख्यम् ।।१९८।। लोकोहि मोहसद्भावे ज्ञानशक्तिप्रतिबन्धकसद्भावे च सतृष्णत्वादप्रत्यक्षार्थत्वानवच्छिन्नविषयत्वाभ्यां चाभिलषितं जिज्ञासितं संदिग्धं चार्थ ध्यायन् दृष्टः, भगवान् सर्वज्ञस्तु निहतघनघातिकर्मतया मोहाभावे ज्ञानशक्तिप्रतिबन्धकाभावे च निरस्ततृष्णत्वात्प्रत्यक्षसर्वभावतत्त्व ( हरिगीत ) घन घातिकर्म विनाश कर प्रत्यक्ष जाने सभी को। संदेहविरहित ज्ञेय ज्ञायक ध्यावते किस वस्तु को।।१९७|| अतीन्द्रिय जिन अनिन्द्रिय अर सर्व बाधा रहित हैं।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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