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________________ ३७६ प्रवचनसार इससे यह निश्चित होता है कि ध्यान स्वभावसमवस्थानरूप होने से और आत्मा से अनन्य होने से अशुद्धता का कारण नहीं होता।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में शेष बातें तो तत्त्वप्रदीपिका के समान ही प्रस्तुत करते हैं; किन्तु उत्थानिका और निष्कर्ष को बदल देते हैं, नकारात्मक बात को सकारात्मक रूप से प्रस्तुत कर देते हैं। तत्त्वप्रदीपिका की उत्थानिका और निष्कर्ष वाक्य में कहा गया है कि आत्मा का ध्यान अशुद्धता का कारण नहीं है। इसके स्थान पर तात्पर्यवृत्ति में कहा गया है कि शुद्धात्मा के ध्यान से जीव विशुद्ध होता है। इसके उपरान्त वे किंच कहकर चार प्रकार के ध्यानों की चर्चा करते हैं। ध्यान के चार प्रकारों को भी वे तीन प्रकार से प्रस्तुत करते हैं । १. प्रथम प्रकार में ध्यान, ध्यान सन्तान, ध्यान चिन्ता और ध्यान का अन्वयसूचन इन चार की चर्चा करते हैं। इन्हें स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि एकाग्रचित्तानिरोध ध्यान है और वह शुद्ध और अशुद्ध के भेद से प्रकार का होता है। अन्तर्मुहूर्त तक तत्त्वचिन्तन। इसीप्रकार निरन्तर ध्यान फिर चिन्तन, फिर ध्यान और फिर चिन्तन इसप्रकार की स्थिति ध्यानसंतान है । जहाँ ध्यान सन्तान के समान ध्यान का परिवर्तन तो नहीं है, पर ध्यान संबंधी चिन्तन है। कभी-कभी ध्यान भी होता है । इस स्थिति को ध्यानचिन्ता कहते हैं । अन्तर्मुहूर्त तक ध्यान और फिर जहाँ बारह भावना आदि वैराग्यरूप चिन्तन हो, वह ध्यानान्वयसूचन है । २. दूसरे प्रकार में ध्याता, ध्यान, ध्यान का फल और ध्येय - इन चार रूपों को प्रस्तुत करते हैं । ३. तीसरे प्रकार में आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल के रूप में ध्यान को प्रस्तुत करते हैं। इस गाथा में ध्याता का स्वरूप बताया गया है। कहा गया है कि जिन्होंने मिथ्यात्व का नाश कर दिया है अर्थात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान प्राप्त कर लिया है; वे भव्यजीव जब विषयों से विरक्त होकर, मन का निरोध करके, स्वभाव में स्थित होते हैं; तब वे आत्मा का ध्यान करनेवाले ध्याता संत होते हैं। मन के निरोध को यहाँ सागर के मध्य में स्थित जहाज पर बैठे पक्षी के उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है। पानी का जहाज जब सागर के किनारे पर था; तब उस पर एक पक्षी बैठ गया । जहाज चल पड़ा और सागर के मध्य में पहुँच गया। अब पक्षी उड़कर जावे तो जावे कहाँ; क्योंकि दूर-दूर तक न कोई पेड़-पौधे दिखाई देते हैं; न मकान। अत: वह मन मारकर जहाज पर ही बैठा रहता है। यदि उड़ता भी है तो फिर लौटकर
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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