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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ये अशुद्ध- शुभाशुभ परिणाम मोह-राग-द्वेषरूप ही हैं। इनमें मोह अर्थात् दर्शनमोहमिथ्यात्व और द्वेष तो अशुभरूप ही होते हैं; पर राग शुभ और अशुभ - दोनों प्रकार का होत है; क्योंकि वह राग विशुद्धि और संक्लेशरूप होता है । इसप्रकार इन मोह-राग-द्वेष भावों को रागभाव और इन मोह-राग-द्वेष भावों से रहित भावों को वीतरागभाव कहते हैं । मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र को रागभाव और सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्र को वीतरागभाव कहते हैं। रागी जीव बंधन को प्राप्त होता है और रागरहित जीव बंधन से मुक्त होता है। इसका भाव यही है कि मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र संसार के कारण हैं और सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र मोक्ष के कारण हैं । । १८०-१८१ ।। ३५७ विगत गाथाओं में किये गये शुभाशुभरूप अशुद्धभावों और शुद्धभावों के स्पष्टीकरण के उपरान्त इन गाथाओं में अब स्वद्रव्य में प्रवृत्ति और परद्रव्य से निवृत्ति के लिए स्व-पर का भेदविज्ञान कराते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है जो वि जाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज । कीरदि अज्झवसाणं अहं ममेदं ति मोहादो । । १८३ ।। भणिताः पृथिवीप्रमुखा जीवनिकाया अथ स्थावराश्च त्रसाः । अन्ये ते जीवाज्जीवोऽपि च तेभ्योऽन्यः ।। १८२॥ यो नैव जानात्येवं परमात्मानं स्वभावमासाद्य । कुरुतेऽध्यवसानमहं ममेदमिति मोहात् ।। १८३ ।। य एते पृथिवीप्रभृतय: षड्जीवनिकायास्त्रसस्थावरभेदेनाभ्युपगम्यन्ते ते खल्वचेतनत्वादन्ये जीवात्, जीवोऽपि च चेतनत्वादन्यस्तेभ्य: । अत्र षड्जीवनिकायात्मनः परद्रव्यमेक एवात्मा स्वद्रव्यम् ।। १८२ ॥ यो हि नाम नैवं प्रतिनियतचेतनाचेतनत्वस्वभावेन जीवपुद्गलयोः स्वपरविभागं पश्यति ( हरिगीत ) पृथ्वी आदि थावरा त्रस कहे जीव निकाय हैं। वे जीव से हैं अन्य एवं जीव उनसे अन्य है ।। १८२ ॥ जो न जाने इसतरह स्व और पर को स्वभाव से । मोह से मोहित रहे 'ये मैं हूँ' अथवा 'मेरा यह ' ॥ १८३॥ अब पृथ्वी आदि स्थावर और त्रसरूप जो जीव निकाय कहे गये हैं; वे जीव से अन्य हैं
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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