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________________ ३५० प्रवचनसार के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष भी तो हैं। इसलिए यह भावबंध एक आत्मा और दूसरे मोह-राग-द्वेष के बीच होनेवाला बंध है । इस भावबंध में कर्मोदय उदयरूप से और वे ज्ञेयपदार्थ ज्ञेयरूप से निमित्तमात्र हैं। इन्होंने आत्मा में कुछ भी नहीं किया है; क्योंकि इनमें और आत्मा के बीच में तो अत्यन्ताभाव की वज्र की दीवाल है । कर्मों के उदयकाल में ज्ञेयों के लक्ष्य से यह आत्मा स्वयं ही मोह और राग-द्वेषरूप परिणमा है। यद्यपि यह मोह-राग-द्वेषभाव आत्मा की ही विकारी पर्यायें हैं; किन्तु दुख का कारण होने से आत्मा की मर्यादा के बाहर है, इसलिए द्वितीय हैं। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यदि राग-द्वेष-मोह द्वितीय हैं तो फिर 'अकेला ही बंधरूप हो जाता है' - ऐसा क्यों लिखा है ? उत्तर : परद्रव्य के साथ के बंध के निषेध के लिए ऐसा लिखा गया है। अथ पुद्गलजीवतदुभयबन्धस्वरूपं ज्ञापयति । अथ द्रव्यबन्धस्य भावबन्धहेतुकत्वमुज्जीवयति - - फासेहिं पोग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं । अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो । । १७७ ।। सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पोग्गला काया । पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठति हि जंति बज्झंति । । १७८ । । स्पर्शैः पुद्गलानां बन्धो जीवस्य रागादिभिः । अन्योन्यमवगाहः पुद्गलजीवात्मको भणित: ।। १७७।। आत्मा में तो एक भावबंध ही है। नये द्रव्यकर्मों का बंध तो पुराने द्रव्यकर्मों के साथ स्निग्धता-रूक्षता के आधार पर होता है । वस्तुस्थिति यह है कि इसी भावबंध का त्ि पाकर नवीन द्रव्यकर्म पूर्व द्रव्यकर्मों के साथ स्निग्धता और रूक्षता के आधार पर बंधन को प्राप्त होते हैं। साथ ही उन द्रव्यकर्मों के प्रदेश आत्मप्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाह रूप से बँधते हैं, प्रकृतिरूप परिणमते हैं, स्थिति के अनुसार ठहरते हैं और काल पाकर फल देकर चले जाते हैं। इसप्रकार यहाँ प्रदेशबंध, प्रकृतिबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध - ये चारों ही बंध घटित हो जाते हैं । इसप्रकार यह सुनिश्चित ही है कि द्रव्यकर्म और भावकर्म में परस्पर निमित्त - नैमित्तिक संबंध है, कर्ता-कर्म संबंध नहीं और आत्मा व द्रव्यकर्मों में मात्र एकक्षेत्रावगाह संबंध ही है ।।१७५-१७६ ।। विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि यह जानने-देखनेवाला आत्मा ज्ञेयरूप विषयों को
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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