SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ३४९ जीव विषयागत पदार्थों को जिस भाव से देखता-जानता है; उसीभाव से उपरक्त होता है और उसीभाव से कर्म बाँधता है-ऐसा उपदेश है। इन गाथाओं के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “सविकल्प (ज्ञान) और निर्विकल्प (दर्शन) प्रतिभासस्वरूपहोने से यह आत्मा पूर्णतः उपयोगमय है। काले, पीले या लाल पात्र में रखे हुये स्फटिक मणि के कालेपन, पीलेपन और ललाई से उपरक्त स्वभाववाला स्फटिकमणि जिसप्रकार स्वयं अकेला ही तद्रूप परिणमित होता है; उसीप्रकार यह आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होनेवाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष करता है और मोह-राग-द्वेष केद्वारा उपरक्त (विकारी) आत्मस्वभाववाला होने से स्वयं अकेला ही बंधरूप है; क्योंकि मोह-राग-द्वेषभाव ही इसके द्वितीय है। ___ अयमात्मा साकारनिराकारपरिच्छेदात्मकत्वात्परिच्छेद्यतामापद्यमानमर्थजातं येनैव मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वाभावेन पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यत एव । योऽयमुपराग: स खलु स्निग्धरुक्षत्वस्थानीयो भावबन्धः। अथ पुनस्तेनैव पौद्गलिकं कर्म बध्यत एव, इत्येषभावबन्धप्रत्ययोद्रव्यबन्धः।।१७६।। ___ साकार (ज्ञान) और निराकार (दर्शन) प्रतिभासस्वरूप होने से यह आत्मा प्रतिभासित होने योग्य पदार्थ समूह को जिस मोह-राग-द्वेषरूप भाव को देखता-जानता है; उसी से उपरक्त होता है। जो यह उपराग (विकार) है, वह स्निग्ध-रूक्षत्व स्थानीय भावबंध है और उसी से पौद्गलिक कर्म बंधते हैं । इसप्रकार यह भावबंध निमित्तक द्रव्यबंध है।" ___बंध के होने के लिए दो पदार्थों का होना जरूरी है; क्योंकि अकेले एक पदार्थ में बंध कैसे हो सकता है ? इसलिये यहाँ यह कहा गया है कि आत्मा के बंध में आत्मा एक और मोहराग-द्वेष दूसरे - इसप्रकार आत्मा और मोह-राग-द्वेष इन दो में बंध हुआ है। यहाँ तत्त्वप्रदीपिका टीका में स्फटिक मणि का उदाहरण देकर यह सिद्ध किया गया है कि जिसप्रकार अत्यन्त स्वच्छस्वभावी स्फटिक मणि काले, पीले और लाल पात्र के संयोग से स्वयं अकेला ही काला, पीला और लाल हो जाता है; उसीप्रकार यह आत्मा विभिन्न पदार्थों को ज्ञेयरूप से प्राप्तकर, जानकर, उनमें अपनापन करता है, उनसे राग-द्वेष करता है तो उन मोह-राग-द्वेष से उपरक्त होने से स्वयं अकेला ही बंधरूप हो जाता है। यहाँ यह प्रश्न संभव है कि किसी वस्तु का बंध किसी दूसरी वस्तु से ही संभव है, अकेले एक में बंधन कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा गया है कि यहाँ आत्मा अकेला कहाँ है, साथ में ज्ञेयों
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy