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________________ ३२४ प्रवचनसार के कारण वह परमाणु स्निग्ध अथवा रूक्ष होता है; इसलिए उसे पिण्डपर्यायपरिणतिरूप द्विप्रदेशादिपने की अनुभूति होती है। ___ एक परमाणु की दूसरे एक परमाणु के साथ पिण्डरूप परिणति द्विप्रदेशीपने की अनुभूति है; एक परमाणु की अन्य दो परमाणुओं के साथ पिण्डरूप परिणति त्रिप्रदेशीपने का अनुभव है। इसप्रकार परमाणु अन्य परमाणुओं के साथ पिण्डरूप परिणत होने पर अनेकप्रदेशीपने का अनुभव करता है । इसप्रकार स्निग्ध-रूक्षत्व पिण्डपने का कारण है। ___समतो व्यधिकगुणाद्धि स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्ध इत्युत्सर्गः, स्निग्धरूक्षढ्यधिकगुणत्वस्य हि परिणामकत्वेन बन्धसाधनत्वात् । न खल्वेकगुणात् स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्ध इत्यपवादः, एकगुणस्निग्धरूक्षत्वस्य हि परिणम्यपरिणामकत्वाभावेन बन्धस्यासाधनत्वात् ।।१६५।। ___ परमाणु के परिणाम होता है; क्योंकि परिणाम वस्तु का स्वभाव होने से उसका उल्लंघन नहीं किया जासकता। उस परिणाम के कारण कादाचित्क (कभी-कभीहोनेवाली) विचित्रता (अनेकरूपता) धारण करता हुआ, एक से लेकर एक-एक बढ़ते हुए अनंत अविभागप्रतिच्छेदों तक व्याप्त होनेवाला स्निग्धत्व अथवा रूक्षत्व परमाणु के होता है; क्योंकि परमाणु अनेक प्रकार के गुणोंवाला है। समान से दो गुण (अंश) अधिक स्निग्धत्व या रूक्षत्व हो तो बंध होता है - यह उत्सर्ग (सामान्य नियम) है; क्योंकि स्निग्धत्व या रूक्षत्व की द्विगुणाधिकता होना परिणमन करानेवालाहोने सेबंध का कारण है। यदिएकगुण स्निग्धत्व यारूक्षत्व होतोबंधनहीं होता - यह अपवाद है; क्योंकि एक गुण स्निग्धत्व और रूक्षत्व के परिणम्य-परिणामता का अभाव होने से बंध के कारणपने का अभाव है।" उक्त गाथाओं का भाव आचार्य जयसेन सोदाहरण विस्तार से समझाते हैं; जिसका सार इसप्रकार है - "जिसप्रकार शुद्ध-बुद्ध स्वभाव द्वारा यह आत्मा बन्ध रहित होने पर भी, पश्चात् अशुद्धनय से स्निग्ध के स्थानीय रागभाव तथारूक्ष के स्थानीय द्वेषभावरूप से जब परिणमित होता है, तब परमागम में कही गई विधि से बन्ध का अनुभव करता है; उसीप्रकार परमाणु भी स्वभाव से बन्ध रहित होने पर भी, जब बन्ध के कारणभूत स्निग्ध-रूक्ष गुणरूपसे परिणमित होता है, तब दूसरे पुद्गल के साथ विभाव पर्यायरूप बन्ध का अनुभव करता है। बकरी के दूध में, गाय के दूध में, भैंस के दूध में चिकनाई की वृद्धि के समान; जिसप्रकार जीव में बन्ध के कारणभूत स्निग्ध के स्थानीय रागपना तथा रूक्ष के स्थानीय द्वेषपना, जघन्य
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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