SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ३२३ रे अप्रदेशी अणु एक प्रदेशमय अर अशब्द हैं। अर रूक्षता-स्निग्धता से बहुप्रदेशीरूप हैं।।१६३|| परमाणु के परिणमन से इक-एक कर बढ़ते हुए। अनंत अविभागी न हो स्निग्ध अर रूक्षत्व से ||१६४|| परमाणुओं का परिणमन सम-विषम अर स्निग्ध हो। अररूक्ष हो तो बंध हो दो अधिक पर न जघन्य हो।।१६५|| एकोत्तरमेकाद्यणोः स्निग्धत्वं वा रूक्षत्वम् । परिणामाद्भणितं यावदनन्तत्वमनुभवति ।।१६४।। स्निग्धा वारूक्षा वा अणुपरिणामाः समा वा विषमा वा। समतो व्यधिका यदि बध्यन्ते हि आदिपरिहीणाः ।।१६५।। परमाणुर्हि व्यादिप्रदेशानामभावादप्रदेशः, एकप्रदेशसद्भावात्प्रदेशमात्रः, स्वयमनेकपरमाणुद्रव्यात्मकशब्दपर्यायव्यक्त्यसंभवादशब्दश्च। __ यतश्चतुःस्पर्शपञ्चरसद्विगन्धपञ्चवर्णानामविरोधेन सद्भावात् स्निग्धोवारूक्षोवा स्यात्, तत एव तस्य पिण्डपर्यायपरिणतिरूपा द्विप्रदेशादित्वानुभूतिः। अथैवं स्निग्धरूक्षत्वं पिण्डत्वसाधनम्।।१६३।। परमाणोर्हि तावदस्ति परिणाम: तस्य वस्तुस्वभावत्वेनानतिक्रमात् । तत्तस्तु परिणामादुपात्तकादाचित्कवैचित्र्यं चित्रगुणयोगित्वात्परमाणोरेकाोकोत्तरानन्तावसानाविभागपरिच्छेदव्यापि स्निग्धत्वं वारूक्षत्वं वा भवति ।।१६४।। अप्रदेशी और प्रदेशमात्र, अशब्द परमाणु स्निग्ध तथा रूक्ष होता हुआ द्विप्रदेशादिपने का अनुभव करता है। परमाणु के परिणमन के कारण एक (अविभागी प्रतिच्छेद) से लेकर एक-एक बढ़ते हुए जबतक अनंतपने (अनंत अविभागी प्रतिच्छेदपने) को प्राप्त हों; तबतक स्निग्धत्व और रूक्षत्व है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। परमाणु-परिणाम स्निग्ध होंया रूक्ष हों, सम अंशवाले हों या विषम अंशवाले हों; यदि समान से दो अधिक अंशवाले हों तो बंधते हैं, जघन्य अंशवाले नहीं बँधते। इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “परमाणु दो आदि प्रदेशों के अभाव के कारण अप्रदेशी और एक प्रदेश के सद्भाव के कारण प्रदेशमात्र हैं तथा स्वयं अनेक परमाणुद्रव्यात्मक शब्द पर्याय की प्रगटता असंभव होने से अशब्द हैं। चार स्पर्श, पाँच रस, दो गंध और पाँच वर्गों के अविरोधपूर्वक सद्भाव
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy