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________________ २९६ प्रवचनसार भी कालद्रव्य स्वभाव से अविनष्ट और अनुत्पन्न होने से अवस्थित ही है, ध्रुव ही है। इसप्रकार कालपदार्थ एक वृत्त्यंश में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वाला सिद्ध होता है। अस्ति हि समस्तेष्वपि वृत्त्यंशेषु समयपदार्थस्योत्पादव्ययध्रौव्यत्वमेकस्मिन् वृत्त्यंशे तस्य दर्शनात, उपपत्तिमच्चतत, विशेषास्तित्वस्य सामान्यास्तित्वमन्तरेणानुपपत्तेः । अयमेव च समय-पदार्थस्य सिद्धयति सद्भावः। यदि विशेषसामान्यास्तित्वे सिद्ध्यतस्तदा तु अस्तित्वमन्तरेण न सिद्ध्यतः कथंचिदपि ।।१४३।। जिसप्रकार काल पदार्थ के एक वृत्यंश में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होते हैं; उसीप्रकार कालद्रव्य के सभी वृत्यंशों में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पाये जाते हैं। यह बात युक्तिसंगत है; क्योंकि विशेष अस्तित्व सामान्य अस्तित्व के बिना नहीं हो सकता। सामान्य और विशेष कालपदार्थ की सिद्धि से ही कालपदार्थ की सिद्धि होती है।" इन गाथाओं का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन अंगुली, सुखी आत्मा और मोक्षपर्याय - इन तीन उदाहरणों के माध्यम से यह बात सिद्ध करते हैं कि कालद्रव्य में एक समय में ही उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य विद्यमान हैं। उदाहरण और सिद्धान्त इसप्रकार है - जिसप्रकार अंगुली द्रव्य में वर्तमान टेढी पर्याय का उत्पाद, पूर्व की सीधी पर्याय का व्यय और दोनों की आधारभूत अंगुली द्रव्यरूप धौव्य है। अथवा अतीन्द्रिय सुखरूप से उत्पाद, पूर्व की पर्याय में प्राप्त दुख का व्यय और दोनों के आधारभूत परमात्मद्रव्यरूप से धौव्य है। अथवा मोक्षपर्यायरूप से उत्पाद, मोक्षमार्गरूप पूर्वपर्याय से व्यय और उन दोनों के आधारभूत परमात्मद्रव्यरूप से धौव्य है। उसीप्रकार कालाणु द्रव्य में वर्तमान समयरूप पर्याय से उत्पाद, पूर्व पर्यायरूप से व्यय और दोनों के आधारभूत कालाणु द्रव्य से धौव्य - इसप्रकार कालाणु द्रव्य सिद्ध हुआ। एकप्रदेशी कालाणु द्रव्य को स्वीकार किये बिना कालद्रव्य की सिद्धि नहीं होगी और उसके अभाव में कोई भी पदार्थ सिद्ध नहीं होगा। उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि अन्य द्रव्यों के समान एक प्रदेशी या अप्रदेशी कालाणु भी एक द्रव्य है। ऐसे कालाणु द्रव्य असंख्य हैं और लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक कालाणु द्रव्य रत्नों की राशि के समान खचित हैं। समय, उक्त कालाणु द्रव्य की सबसे छोटी पर्याय है। वह समय, आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश का अत्यन्त मंदगति से गमन करनेवाले पुद्गल परमाणु की गति के आधार पर नापा जाता है। वह समय अनादि-अनन्त, त्रिकाली ध्रुव, कालद्रव्य का सबसे छोटा अंश है, जो
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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