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________________ १९६ प्रवचनसार तात्पर्य यह है कि अनादि-अनंत होने से, विभावधर्म से विलक्षण होने से और प्रदेशभेद न होने से अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव ही है। जिसप्रकार वह अस्तित्व भिन्न-भिन्न द्रव्यों में प्रत्येक में समाप्त हो जाता है; उसप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय में प्रत्येक में समाप्त नहीं होता; क्योंकि उनकी सिद्धि परस्पर होती है। यदि एक न हो तो दूसरा भी सिद्ध नहीं होता; इसलिए उनका अस्तित्व सोने की भाँति एक ही है। जिसप्रकार जो पीतत्वादि गुण और कुण्डलादि पर्यायें द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव से सोनेरूप द्रव्य से पृथक् दिखाई नहीं देती; उन पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों के स्वरूपकोधारण करके कर्ता-करण-अधिकरणरूपसे प्रवर्त्तमान सोने के अस्तित्व से उत्पन्न पीतत्वादिगुणों और कुण्डलादि पर्यायों से जोसोने का अस्तित्व है, वह सोने का स्वभाव है; यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा पीततादिगुणेभ्यः कुण्डलादिपर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरूपेण कार्तस्वरस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैः पीततादिगुणैः कुण्डलादिपर्यायैश्च निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा गुणेभ्य: पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैर्गुणैः पर्यायैश्च निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वंस स्वभावः।। ___किंच - यथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वाभावेन वा कार्तस्वरात्पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरूपेण कुंडलाङ्गदपीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्याणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तै: कुण्डलाङ्गदपीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्यैर्यदस्तित्वं कार्तरस्वरस्य सस्वभावः, तथा हि द्रव्येण वाक्षेत्रेण वा कालेन वाभावेन वाद्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानै: कर्तृकरणाधिकरूपेणोत्पादव्ययध्रौव्याणांस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैरुत्पादव्ययध्रौव्यैर्यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः। उसीप्रकार जो गुण और पर्यायें द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव से द्रव्य से पृथक् दिखाई नहीं देते; उन गुणोंऔर पर्यायों के स्वरूपकोधारण करके कर्ता-करण-अधिकरणरूपसे प्रवर्त्तमान द्रव्य के अस्तित्व से उत्पन्न गुणों और पर्यायों से जोद्रव्य का अस्तित्व है, वह द्रव्य का स्वभाव है। जिसप्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव से जो सोना पीतत्वादि गुणों से और कुण्डलादि पर्यायों से पृथक् दिखाई नहीं देता; उस सोने के स्वरूप को धारण करके कर्ता-करणअधिकरणरूप से प्रवर्त्तमान पीतत्वादिगुणों और कुण्डलादि पर्यायों से उत्पन्न सोने का मूल
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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