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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार १२९ अखण्ड है, इन्द्रियसुख बंध का कारण है तो अतीन्द्रियसुख बंध का कारण नहीं है और इन्द्रियसुख विषम अर्थात् हानि-वृद्धि सहित है तो अतीन्द्रियसुख सम अर्थात् हानि-वृद्धि रहित है। उक्त पाँच विशेषताओं के कारण इन्द्रियसुख हेय और अतीन्द्रिय सुख उपादेय है। यह एक दिशाबोधक सरल सुबोध गाथा है; जिसमें सांसारिक सुख की दुखरूपता को अत्यन्त मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसमें कहा गया है कि यह अज्ञानी जगत जिस विषयसुख की कामना करता है, जिसके लिए आकाश-पाताल एक कर देता है, सागर में गोता लगाता है, आकाश में गुलाचे भरता है और जमीन को फोड़कर पाताल में जाने को तैयार रहता है, इसप्रकार इस बेशकीमती नरभव को दाव पर लगा देता है; आखिर उस सुख में ऐसा है ही क्या? वस्तुत: यह इन्द्रियसुख सुख ही नहीं है। यह तो आकुलतारूप होने से दुःख ही है। इस गाथा में इसे दुःखरूप सिद्ध करने के लिए पाँच कारण दिए हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि यह पराधीन है। यह तो जगत में प्रसिद्ध ही है कि पराधीन सपनेहु सुख नाहीं - पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख की प्राप्ति नहीं होती। यह संसारी प्राणी इन्द्रियों के आधीन है। यदि इन्द्रियाँ भोगने के काबिल नहीं हुईं तो प्राप्त भोग्य सामग्री और अधिक संताप देती है। दूसरे भोग्य सामग्री भी तो पर है; अत: उसकी उपलब्धता भी सदा सहज नहीं है। जब दांत थे, तब चने नहीं मिले और जब चने उपलब्ध हुए, तबतक दांत गायब हो चुके थे। मान लो दांत भी हैं और चना भी हैं, पर भूख ही न हो तो, खाने का भाव ही न हो तो फिर क्या हो? इसीप्रकार भोगसामग्री भी हो और भोगने में इन्द्रियाँ भी सबल हों; पर भोगने के भाव बिना भोगा जा सकना संभव नहीं है। दूसरे इन्द्रियसुख में बाधाएँ भी कम नहीं हैं। इन्द्रियाँ सबल हों, भोग सामग्री भी हो और भोगने के भाव भी प्रबल हों; पर कोई पूज्य पुरुष आ जाये, मित्र आ जाये या फिर शत्रु ही क्यों न आ जाय; सब बाधाएँ ही हैं; क्योंकि उक्त परिस्थिति में उपभोग संभव नहीं है। तीसरी बात यह है कि पुण्योदय से प्राप्त होनेवाले भोग कभीभी विघट सकते हैं; क्योंकि पुण्योदय न जाने कब समाप्त हो जाय । पापोदय भी तो कभी भी आ सकता है। इसप्रकार ये भोग कभी भी विघटित हो जानेवाले होने से विच्छिन्न हैं। चौथी बात यह है कि ये बंध के कारण हैं; क्योंकि भोगने के भाव पापभाव हैं और पापभाव पापबंध का ही कारण होता है। इसप्रकार इन्द्रियसुख अभी तो दुखरूप है ही, भविष्य में भी दुख देनेवाला ही है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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