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________________ प्रवचनसार १२८ बंध का कारण है और विषम है; इसप्रकार वह इन्द्रियसुख दुख ही है। __सपररत्वात् बाधासहितत्वात् विच्छिन्नत्वात् बंधकारणत्वात् विषमत्वाच्च पुण्यजन्यमपीन्द्रियसुखं दुःखमेव स्यात् । सपरं हि सत् परप्रत्ययत्वात् पराधीनतया, बाधासहितं हि सदशनायोदन्यावृषस्यादिभिस्तृष्णाव्यक्तिभिरुपेतत्वात् अत्यन्ताकुलतया, विच्छिन्नं हि सदसद्वेद्योदयप्रच्यावितसद्वेद्योदयप्रवृत्ततयाऽनुभवत्वादुद्भूतविपक्षतया, बंधकारणं हि सद्विषयोपभोगमार्गानुलग्नरागादिदोषसेनानुसारसंगच्छमानघनकर्मपांसुपटलत्वादुदर्कदुःसहतया, विषमं हि सदभिवृद्धिपरिहाणिपरिणतत्वादत्यन्तविसंष्ठुलतया च दुःखमेव भवति। अथैवं पुण्यमपि पापवदुःखसाधनमायातम् ।।७६।। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “परसंबंधयुक्त होने से, बाधासहित होने से, विच्छिन्न होने से, बंध का कारण होने से और विषम होने से वह इन्द्रियसुख पुण्यजन्य होने पर भी दुख ही है। इन्द्रियसुख पर के संबंधवाला होता हुआ पराश्रयता के कारण पराधीन है; बाधासहित होता हुआखाने, पीने और मैथुन की इच्छाइत्यादि तृष्णाकी व्यक्तियों से युक्त होने से अत्यन्त आकुल है; विच्छिन्न होता हुआ असातावेदनीय का उदय जिसेच्युत कर देता है - ऐसे सातावेदनीय के उदय से प्रवर्तमान होता हुआ अनुभव में आता है, इसलिए विपक्ष की उत्पत्तिवाला है; बंध का कारण होता हुआ विषयोपभोग के मार्ग में लगी हुई रागादि दोषों की सेना के अनुसार कर्मरज के घनपटल का संबंध होने के कारण परिणाम से दुःसह है और विषम होता हुआ हानि-वृद्धि में परिणमित होने से अत्यन्त अस्थिर है; इसलिए वह इन्द्रियसुख दुख ही है। इसप्रकार यदि इन्द्रियसुख दुख ही है तो फिर पाप की भाँति पुण्य भी दुख का ही साधन है - यह सहज ही प्रतिफलित हो जाता है।" ___ उक्त गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इन्द्रियसुख का स्वरूप तो आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही स्पष्ट करते हैं; किन्तु साथ में इन्द्रियसुख के प्रतिपक्षी अतीन्द्रियसुख का स्वरूप भी स्पष्ट करते हैं। इसप्रकार वे इन्द्रियसुख और अतीन्द्रियसुख की तुलना प्रस्तुत कर देते हैं। वेकहते हैं कि इन्द्रियसुख पराधीन है तोअतीन्द्रियसुखस्वाधीन है, इन्द्रियसुख बाधासहित है तो अतीन्द्रियसुख अव्याबाध है, इन्द्रियसुख खण्डित हो जानेवाला है तो अतीन्द्रियसुख
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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