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________________ नींव का पत्थर विराग की गंभीर और महत्वपूर्ण समस्या के समाधान के रूप में माँ समताश्री ने धर्ममहल की नींव के पत्थर के रूप में वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त को समझाते हुए प्रवचन में कहा - वर्तमान में मान्य 'विश्व' का स्वरूप मात्र उन कुछ देशों, द्वीपों तक ही मर्यादित है, सीमित है, जहाँ मानव जाति निवास करती है; जबकि वास्तविक विश्व का स्वरूप शास्त्रीय परिभाषा के अन्तर्गत 'छह द्रव्यों के समूह को कहा है। उन छह द्रव्यों में जीव अनन्त हैं, पुद्गल अनन्तानन्त है; धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और आकाश द्रव्य एक-एक हैं तथा काल द्रव्य असंख्य हैं। इन अनादि-अनंत स्वतंत्र, स्वाधीन स्वावलम्बी स्वसंचालित द्रव्यों में जो अनन्त जीव द्रव्य हैं, उनमें हम भी एक द्रव्य हैं। इस कारण हममें भी उपर्युक्त सभी विशेषतायें घटित होती हैं अर्थात हम भी अनादि-अनन्त, सम्पर्ण रूप से स्वाधीन-स्वतंत्र. स्वावलम्बी हैं, किन्तु हम अपने इस मौलिक स्वरूप से अपरिचित हैं, अनभिज्ञ हैं, इस कारण जो स्वाभाविक कार्य-कारण व्यवस्था है, सहजनिमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध हैं, उन्हें वैसा न मानकर उनमें अपना एकत्व एवं कर्तृत्व मान लेते हैं, हर्ष-विषाद करते हैं, सुखी-दुःखी होते हैं और राग-द्वेष में पड़कर अपना संसार बढ़ाते हैं।" ____ माँ ने आगे कहा - "छह द्रव्य के समूह रूप त्रिलोकव्यापी अनादि अनन्त स्व-संचालित विश्व के स्वतंत्र अस्तित्व का परिचायक 'वस्तुस्वातंत्र्य' का सिद्धान्त है, जो कि स्वाभाविक कार्य-कारण व्यवस्था और सहज निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का मूल आधार है। ____ यह सिद्धान्त ही हमें सम्पूर्ण रूप से स्वावलम्बी बना सकता है; क्योंकि विश्व का कण-कण सम्पूर्णतः परनिरपेक्ष, स्वाधीन, स्वतंत्र, स्वसंचालित एवं स्वावलम्बी है। उसे अपने अस्तित्व के लिए एवं परिणमन के लिए रंचमात्र भी पर के सहयोग की आवश्यकता नहीं है।" प्रवचन के बीच में ही विराग बोला - "यदि यह बात मैं पहले ही सुन/समझ लेता तो इतनी देर नहीं होती। जीवन का बहुभाग समय धर्म के नाम पर यों ही चला गया।" माँ और सरस्वती माँ माँ ने समाधान करते हुए कहा - "देर होती कैसे नहीं, प्रत्येक कार्य होने का अपना स्वकाल होता है, पर्यायगत योग्यता होती है जो काम जब होना होता है, तभी होता है, जिस उद्यम पूर्वक होना होता है, वैसा उद्यम भी उससमय अपनी तत्समय की योग्यता से होता है। जैसी होनहार होती है तदनुसार होता है, जिन निमित्त कारणों की उपस्थिति में होना होता है, वे सब कारण कलाप एक साथ सहज में मिलते चले जाते हैं, उसमें हमें, तुम्हें किसी को भी कुछ भी तो नहीं करना है" - यह चर्चा करते हुए माँ ने काल पर बहुत जोर दिया। तथा 'काल' का स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि - "काल का अर्थ तत्समय की योग्यता ही है। इस हिसाब से तुम्हारी वस्तु स्वातंत्र्य की समझ का यही काल था, देर कहाँ हुई। शास्त्रीय शब्दों में कार्य के सम्पन्न होने की प्रक्रिया को पाँच समवायरूप कहा गया है - वे इसप्रकार हैं - स्वभाव, पुरुषार्थ, होनहार, काललब्धि और निमित्त । कार्य निष्पन्न होने में ये पाँचों कारण मिलते ही मिलते हैं। ऐसा ही वस्तु स्वरूप है और यह सब प्रक्रिया ऑटोमेटिक सम्पन्न होती है, इसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता।" विराग को यह सब जानकर भारी संतोष हुआ। उसने कहा – “माँ श्री मुझे अभी इस वस्तुस्वातंत्र्य के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानना है? एक सबसे अहं प्रश्न तो यह है कि - 'वस्तु स्वातंत्र्य' को स्वीकार करने पर फिर अहिंसा/हिंसा करने, न करने के उपदेश का क्या होगा? इस विषय में जितना सोचता हूँ, उतना ही उलझता जाता है, और सोचता हूँ कि धर्म के नाम पर जो अबतक किया, क्या वह सब भ्रम था। क्या मेरे साथ वह कहावत ही चरितार्थ हुई कि 'खोदा पहाड़ और निकली चुहिया और वह भी मरी हुई।' सचमुच ऐसा लगता है कि अब तक धर्म के नाम पर किया गया सारा श्रम व्यर्थ ही गया।" माँ ने कहा - "आज का समय समाप्त हुआ, शेष चर्चा कल करेंगे। सभा विसर्जित हुई, सभी कल की प्रतीक्षा में अपने-अपने घर चले गये। (21)
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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