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________________ माँ और सरस्वती माँ विराग धर्म का पिपासु और जिज्ञासु तो है ही। उसे जहाँ भी धर्म की बात पढ़ने-सुनने को मिलती, वह उसे न केवल पढ़ता-सुनता; बल्कि उस पर गहराई से विचार भी करता। एक बार उसने विष्णु शर्मा द्वारा लिखी गई पंचतंत्र पुस्तक में एक श्लोक पढ़ा था - "तकोऽप्रतिष्ठः श्रुत्योर्विभिन्नः, नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणं। धर्मस्य तत्वं निहितं गुफायां, महाजनो येन गता स पंथः ।। इसका अर्थ यह है कि - पृथ्वी बहुत बड़ी है, परस्पर विरुद्ध कथन करनेवाले मुनिगण अनेक हैं, धर्म का तत्त्व मानो किसी गुफा में मुंह छुपाकर बैठ गया है, अतः अब तो जिस मार्ग से महापुरुष चलें वही धर्म का पंथ है।" इस संदर्भ में विराग विचार करता है कि "वर्तमान विश्व के लगभग छह अरब आदमियों में शायद ही कोई ऐसा हो जो किसी न किसी रूप में धर्म को न मानता हो। सभी व्यक्ति अपनी-अपनी समझ एवं श्रद्धा के अनुसार धर्म को मानते ही हैं। ___इस दृष्टिकोण से देखें तो सभी व्यक्ति धर्मात्मा है और सभी स्वयं को धर्मात्मा मानते भी हैं। धार्मिक आस्था के कारण पापी से पापी व्यक्ति भी पाप करने के पहले परमात्मा को जरूर याद करता है। यह तो पता नहीं कि वह कैसा धर्मात्मा है? जो परमात्मा को सर्वज्ञ मानता है, फिर भी उन्हीं के सामने खुलकर पाप करता है; जबकि एक साधारण पुत्र पिता के सामने बीड़ी-सिगरेट पीने से भी डरता है। क्या दुनिया में ऐसा भी कोई भगवान है जो पाप करने वाले की भी मदद करता है? खैर! जो भी हो, माँ और सरस्वती माँ परन्तु वे नाम से तो धर्मात्मा हैं ही; क्योंकि वे किसी न किसी रूप में धर्म को तो मानते ही हैं न?" विराग आगे सोचता है कि उपर्युक्त संदर्भ में एक बात यह भी विचारणीय है कि - 'मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्नः' इस सत्य सूक्ति के अनुसार सारी दुनिया में जितने व्यक्ति हैं, उनमें सबके विचार भिन्न-भिन्न होते हैं, एक दूसरे के विचार परस्पर में एक-दूसरे से कभी नहीं मिलते। उनमें सम्पूर्ण रूप से समानता संभव ही नहीं है, क्योंकि प्रकृति से ही सबके सोचने का स्तर एवं उनके ज्ञान का स्तर समान नहीं होता। इसी ध्रुव सत्य का प्रतिपादन करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं - "हैं जीव नाना कर्म नाना लब्धि नानाविध कही। अतएव ही निज-पर समय के साथ वर्जित बाद भी।।' जगत में जीव नाना प्रकार के हैं, उनके कर्मों का उदय भी भिन्नभिन्न प्रकार का है, उनके सबके ज्ञान का विकास भी एक जैसा नहीं है। अतः विचार भी एक जैसे नहीं हो सकते हैं। यही कारण है कि जितने व्यक्ति, जितने वर्ग, जितनी जातियाँ, जितने उनके कर्म, उतने ही बन गये धर्म । इतना ही नहीं, एक ही व्यक्ति नोटों और वोटों के चक्कर में मानव सेवा-धर्म आदि अनेक नकली धर्म खड़े करके मानव का पोषण करने के बजाय उनका शोषण करता है। इस तरह धर्म का मूल स्वरूप ही गायब हो गया, बदल गया। इन्हीं सब कारणों से मैं ही क्या, सम्पूर्ण शिक्षित युवा जगत धर्म के संबंध में किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो रहा है। अतः जिसकी समझ में परम्परागत पूर्वाग्रहों वश जो बात जम गई, वही उसका धर्म बन गया। इतना ही नहीं, मनःस्थिति तो यहाँ तक आ पहुँची है कि धर्म के नाम पर जो जैसा धर्माचरण करता है, वह उसे ही सही धर्म का स्वरूप १. नियमसार गाथा १५६ का पद्यानुवाद 'युगल'। (19)
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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