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________________ नींव का पत्थर २४ भी लोरियाँ गा-गा कर सदाचार का पाठ पढ़ाया था । अतः वह विराग के प्रति पूर्ण आश्वस्त थी कि वह भोगों में नहीं भटकेगा । -- -- बहुआयामी व्यक्तित्व का धनी विराग अपनी माँ समताश्री से सदाचार की प्रेरणा पाकर परदेश में भी दुर्व्यसनों से सदा दूर तो रहा ही; नित्य देवदर्शन करने, रात्रि भोजन नहीं करने, पानी छानकर पीने, अभक्ष्यभक्षण नहीं करने तथा लोक विरुद्ध कार्य न करने जैसे नैतिक नियमों का निर्वाह भी बराबर करता रहा। वह दान-पुण्य परोपकार करने में भी कभी पीछे नहीं रहा; परन्तु आध्यात्मिक प्रवचन सुनने का सौभाग्य उसे अधिक नहीं मिला; क्योंकि पहले तो वह पढ़ाई करने के लिए परदेश में रहा, फिर उच्च शिक्षा के अनुकूल उत्तम आजीविका के लिए उसे परदेश में ही स्थाई रूप से रहना अनिवार्य हो गया; परन्तु वहाँ पर भी वह माँ को दिए हुए वचन को ध्यान में रखते हुए सदाचार और नैतिक नियमों का बराबर निर्वाह तो करता रहा; परन्तु वह मूल में भूल यह कर बैठा कि वह उस धर्माचरण रूप सदाचार को ही धर्म मानकर संतुष्ट हो गया। जबकि धर्म का स्वरूप धर्माचरण से कुछ अलग ही है। भौतिकदृष्टि से भले ही परदेश लोगों को सुखद लगता हो, पर आध्यात्मिक उन्नति के लिए वहाँ की स्थिति बिल्कुल भी अनुकूल नहीं है, वीतरागी साधु-सन्तों का आवागमन तो भौतिकवादी भोगप्रधान दूरस्थ देशों में संभव ही नहीं है, युवापीढ़ी के विद्वान भी वहाँ की चकाचौंध में चौंधियाकर वहीं के होकर रह जाते हैं और अपनी अर्जित विद्वता से हाथ धो बैठते हैं। वहाँ धन संचित करने की धुन में वे धर्म-ध्यान से वंचित हो जाते हैं। यदि हम बुजुर्ग विद्वानों की बात करें तो अधिकांश शारीरिक दृष्टि से इतने दुर्बल हो जाते हैं कि चाहकर भी अपनी सेवायें नहीं दे पाते। जो देते भी हैं उनके वे उपदेश भी ऊंट के मुँह में जीरे की (13) वही ढाक के तीन पात २५ कहावत को ही चरितार्थ करते हैं। क्या होता है एक वर्ष में ४-५ प्रवचनों से। अतः उत्तम तो यही है कि जहाँ भरपूर लाभ मिले वहाँ ही स्थाई आवास और आजीविका के साधन जुटाना चाहिए । माँ ने विराग को फोन पर भी बहुत समझाया कि “बेटा ! यदि तुझे यह दुर्लभ मनुष्य जन्म सार्थक करना हो तो तू स्व- देश वापिस आ जा; परन्तु जब तक स्वयं की होनहार भली नहीं होती तब तक माँ की तो बात ही क्या, भगवान की बात भी समझ में नहीं आती। और संसार की उलझनों में अटके रहने के लिए कोई न कोई बहाना तो मिल ही जाता है। विराग को भी वहाँ रहने को अपना कैरियर बनाने का बहाना पर्याप्त था । -- उसकी पत्नी चेतना को भी कंप्यूटर इंजीनियर होने से अच्छी सर्विस मिल गई थी, इस कारण वह भी स्वदेश नहीं लौटना चाहती थी। वैसे स्वदेश लौटने के विचार को बल मिलने का एक प्रबल कारण यह बन रहा था कि परदेश में ही जन्मी एवं भारतीय भाषा और संस्कृति से सर्वथा अपरिचित उसकी इकलौती बेटी अनुपमा अब विवाह योग्य हो चली थी । पाश्चात्य संस्कृति में पली-पुसी होने और उसी वातावरण में निरन्तर रहने से कालेज में साथ-साथ पढ़ने वाले कुछ ऐसे लड़कों से उसकी मित्रता हो गई जो कभी भी उसके चरित्र को कलंकित कर सकते थे। उनका मिलना-जुलना और घर आना-जाना रोकना भी संभव नहीं था। अतः एक दिन विराग और चेतना को यह निर्णय लेने के लिए बाध्य होना पड़ा कि “अब तो परदेश प्रवास छोड़ना ही होगा, अन्यथा हम अपनीलाड़ली बेटी से ही हाथ धो बैठेंगे।" आत्म कल्याण करने एवं परलोक सुधारने के लिए भले ही कोई तत्काल ऐसे निर्णय न ले पाये; पर संतान का मोह कुछ ऐसा ही होता है कि उनके लिए जो भी करना पड़े, लोग करते हैं।
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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