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________________ जोगसारु (योगसार) जोगसारु (योगसार) (दूहा-१०८) संसारहँ भय-भीयएँ, जोगिचंद-मुणिएण । अप्पा-संबोहण कया, दोहा इक्क-मणेण ।। (हरिगीत) भवदुखों से भयभीत योगीचन्द्र मुनिवर देव ने। ये एकमन से रचे दोहे स्वयं को संबोधने ।। संसार से भयभीत योगीन्दु मुनि ने आत्मसम्बोधन के लिए एकाग्र मन से इन दोहों की रचना की है। जोइन्दु मुनिवर देव ने दोहे रचे अपभ्रंश में । लेकर उन्हीं का भाव मैंने रख दिया हरिगीत में।। (दूहा-१०५) सो सिउ संकरु विण्हु सो, सो रुद्ध वि सो बुद्ध । सो जिणु ईसरु बंभु सो, सो अणंतु सो सिद्ध ।। (हरिगीत ) वह आतमा ही विष्णु है जिन रुद्र शिव शंकर वही। बुद्ध ब्रह्मा सिद्ध ईश्वर है वही भगवन्त भी ।। आत्मा ही शिव है, आत्मा ही शंकर है, आत्मा ही विष्णु है, आत्मा ही रुद्र है, आत्मा ही बुद्ध है, आत्मा ही जिन है, आत्मा ही ब्रह्मा है, आत्मा ही अनन्त है और आत्मा ही सिद्ध भी है। (दूहा-१०६) एव हि लक्खण-लक्खियउ, जो परु णिक्कलु देउ। देहहँ मज्झहिँ सो वसइ, तासु ण विज्जइ भेउ ।। (हरिगीत ) इन लक्षणों से विशद लक्षित देव जो निर्देह है। कोई भी अन्तर है नहीं जो देह-देवल में रहे ।। उपर्युक्त विविध नामों से लक्षित जो परम निष्कल (शरीर रहित) देव है, वह इस शरीर में ही रहता है। उसमें और इसमें कोई अन्तर नहीं है। (दूहा-१०७) जे सिद्धा जे सिज्झिहिहिँ, जे सिज्झहिँ जिण-उत्तु । अप्पा-दंसणि ते वि फुडु, एहउ जाणि णिभंतु ।। (हरिगीत) जो होंयगे या हो रहे या सिद्ध अबतक जो हुए। यह बात है निर्धान्त वे सब आत्मदर्शन से हुए।। जितने भी जीव भूतकाल में सिद्ध हुए हैं, भविष्य में होंगे और वर्तमान में हो रहे हैं, वे सब आत्मदर्शन से ही हो रहे हैं - ऐसा निःसन्देह जानो।
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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