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________________ जोगसारु (योगसार) (दूहा-९९) सव्वे जीवा णाणमया, जो सम-भाव मुणेइ। सो सामाइउ जाणि फुडु, जिणवर एम भणेइ ।। (हरिगीत) 'जीव हैं सब ज्ञानमय'-इस रूप जो समभाव हो। है वही सामायिक कहें जिनदेव इसमें शक न हो।। जिनवर देव कहते हैं कि जब यह जीव समभाव के द्वारा ऐसा जानता है कि सब जीव ज्ञानमय हैं, तब उसके सामायिक होता है - ऐसा स्पष्ट जानो। (दूहा-१००) राय-रोस ये परिहरिवि, जो समभाउ मुणेइ। सो सामाइउ जाणि फुडु, केवलि एम भणेइ।। (हरिगीत ) जो राग एवं द्वेष के परिहार से समभाव हो । है वही सामायिक कहें जिनदेव इसमें शक न हो।। केवलज्ञानी कहते हैं कि राग और द्वेष दोनों को छोड़कर जो समभाव धारण किया जाता है, वही सामायिक है - ऐसा स्पष्ट जानो। (दूहा-१०१) हिंसादिउ-परिहारु करि, जो अप्पा हु ठवेइ। सो बियऊ चारित्तु मुणि, जो पंचम-गइ णेइ ।। (हरिगीत) हिंसादि के परिहार से जो आत्म-स्थिरता बढ़े। यह दूसरा चारित्र है जो मुक्ति का कारण कहा ।। जो जीव हिंसादि का त्याग करके आत्मा को आत्मा में स्थापित करता है, उसके छेदोपस्थापना नामक दूसरा चारित्र होता है, जो जीव को पंचम गति में ले जाता है। जोगसारु (योगसार) (दूहा-१०२) मिच्छादिउ जो परिहरणु, सम्मइंसण-सुद्धि । सोपरिहार-विसुद्धि मुणि, लहुपावहि सिव-सिद्धि ।। (हरिगीत ) जो बढ़े दर्शनशुद्धि मिथ्यात्वादि के परिहार से । परिहारशुद्धी चरित जानो सिद्धि के उपहार से ।। मिथ्यात्वादिक के परिहार (त्याग) से जो सम्यग्दर्शन की शुद्धि होती है, उसे परिहारविशुद्धि नामक तीसरा चारित्र जानो। इससे जीव शीघ्र मोक्षसिद्धि को प्राप्त करता है। (दूहा-१०३) सुहमहँ लोहहँ जो विलउ, जो सुहमु वि परिणामु । सो सुहमु वि चारित्त मुणि, सो सासय-सुह-धामु।। (हरिगीत) लोभ सूक्षम जब गले तब सूक्ष्म सुध-उपयोग हो। है सूक्ष्मसाम्पराय जिसमें सदा सुख का भोग हो ।। सूक्ष्म लोभ के नष्ट हो जाने पर जो सूक्ष्म परिणाम होता है उसे सूक्ष्मसाम्पराय नामक चारित्र जानो। वह अविनाशी सुख का धाम है। (दूहा-१०४) अरहंतु वि सो सिद्ध फुडु, सो आयरिउ वियाणि । सो उवझायउ सो जि मुणि, णिच्छइँ अप्पा जाणि ।। (हरिगीत) अरहंत सिद्धाचार्य पाठक साधु हैं परमेष्ठी पण । सब आतमा ही हैं श्री जिनदेव का निश्चय कथन ।। निश्चय से आत्मा ही अरिहंत है, आत्मा ही सिद्ध है, आत्मा ही आचार्य है, आत्मा ही उपाध्याय है और आत्मा ही मुनि है - ऐसा जानो।
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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