SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षमावाणी पूजन (श्री राजमलजी पवैया कृत) (स्थापना) (छन्द-ताटंक) क्षमावाणी का पर्व सुपावन देता जीवों को संदेश | उत्तम क्षमाधर्म को धारो जो अतिभव्य जीव का वेश ।। मोह नींद से जागो चेतन अब त्यागो मिथ्याभिनिवेश । द्रव्यदृष्टि बन निजस्वभाव से चलो शीघ्र सिद्धों के देश ।। क्षमा, मार्दव, आर्जव, संयम, शौच, सत्य को अपनाओ। त्याग, तपस्या, आकिंचन, व्रत ब्रह्मचर्यमय हो जाओ ।। एक धर्म का सार यही है समतामय ही बन जाओ। सब जीवों पर क्षमाभाव रख स्वयं क्षमामय हो जाओ ।। क्षमा धर्म की महिमा अनुपम क्षमा धर्म ही जग में सार । तीन लोक में गूंज रही है क्षमावाणी की जय-जयकार ।। ज्ञाता द्रष्टा हो समग्र को देखो उत्तम निर्मल भेष । रागों से विरक्त हो जाओ रहे न दुख का किंचित् लेश ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्म ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्म ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । जीवादिक नव तत्त्वों का श्रद्धान यही सम्यक्त्व प्रथम । इनका ज्ञान ज्ञान है, रागादिक का त्याग चरित्र परम ।। ‘संते पुव्वणिबद्धं जाणदि’" वह अबंध का ज्ञाता है। सम्यग्दृष्टि जीव आस्रव बंधरहित हो जाता है । उत्तम क्षमा धर्म उर धारूँ जन्म-मरण क्षय कर मानूँ । परद्रव्यों से दृष्टि हटाऊँ निज स्वभाव को पहचानूँ ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । सप्त भयों से रहित निशंकित निजस्वभाव में सम्यग्दृष्टि | मिथ्यात्वादिक भावों में जो रहता वह है मिथ्यादृष्टि ।। १. समयसार, गाथा १६६ सत्ता में रहे हुए पूर्वबद्ध कर्मों को जानता है। २०८////// जिनेन्द्र अर्चना 105 तीन मूढ़ता छह अनायतन तीन शल्य का नाम नहीं । आठ दोष समकित के अरु आठों मद का कुछ काम नहीं ।। उत्तम क्षमा धर्म उर धारूँ जन्म मरण क्षय कर मानूँ । परद्रव्यों से दृष्टि हटाऊँ निज स्वरूप को पहचानूँ । । उत्तम. ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमाधर्मागाय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा । अशुभ कर्म जाना कुशील शुभ को सुशील मानता रे । जो संसार बंध का कारण वह कुशील जानता न रे ।। कर्म फलों के प्रति जिनकी आकांक्षा उर में रही नहीं । वह निकांक्षित सम्यग्दृष्टी भव की वांछा रही नहीं । । उत्तम. ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमाधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । राग शुभाशुभ दोनों ही संसार भ्रमण का कारण है। शुद्धभाव ही एकमात्र परमार्थ भवोदधि तारण है ।। वस्तु स्वभाव धर्म के प्रति जो लेश जुगुप्सा करे नहीं । निर्विचिकित्सक जीव वही है निश्चय सम्यग्दृष्टि वही । उत्तम. ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमाधर्मा गाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । शुद्ध आत्मा जो ध्याता वह पूर्ण शुद्धता पाता है । जो अशुद्ध को ध्याता है वह ही अशुद्धता पाता है ।। पर भावों में जो न मूढ़ है दृष्टि यथार्थ सदा जिसकी । वह अमूढदृष्टि का धारी सम्यग्दृष्टि सदा उसकी ।। उत्तम. ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्मांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । राग-द्वेष मोहादिक आस्रव ज्ञानी को होते न कभी । ज्ञाता द्रष्टा को ही होते उत्तम संवर भाव सभी ।। शुद्धातम की भक्ति सहित जो पर भावों से नहीं जुड़ा। उपगूहन का अधिकारी है सम्यग्दृष्टि महान बड़ा । उत्तम. ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्मांगाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । जिनेन्द्र अर्चना २०९
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy