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________________ जयमाला (दोहा) विपुलाचल के गगन को, वन्दूँ बारम्बार । सन्मति प्रभु की दिव्यध्वनि, जहाँ हुई साकार ।।१।। (ताटंक) महावीर प्रभु दीक्षा लेकर मौन हुए तप संयम धार । परिषह उपसर्गों को जय कर देश-देश में किया विहार ।। द्वादश वर्ष तपस्या करके ऋजुकूला सरितट आये । क्षपकश्रेणी चढ़ शुक्ल ध्यान से कर्म घातिया विनसाये ।। स्व-पर प्रकाशक परम ज्योतिमय प्रभु को केवलज्ञान हुआ। इन्द्रादिक को समवशरण रच मन में हर्ष महान हुआ।। बारह सभा जुड़ी अति सुन्दर, सबके मन का कमल खिला। जनमानस को प्रभु की दिव्यध्वनि का, किन्तु न लाभ मिला।। छ्यासठ दिन तक रहे, मौन प्रभु दिव्यध्वनि का मिला न योग। अपने आप स्वयं मिलता है, निमित्त-नैमित्तिक संयोग ।। राजगृही के विपुलाचल पर प्रभु का समवशरण आया। अवधिज्ञान से जान इन्द्र ने गणधर का अभाव पाया।। बड़ी युक्ति से इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मण को वह लाया। गौतम ने दीक्षा लेते ही ऋषि गणधर का पद पाया ।। तत्क्षण खिरी दिव्यध्वनि प्रभु की द्वादशांगमय कल्याणी। रच डाली अन्तरर्मुहूर्त में, गौतम ने श्री जिनवाणी ।। सात शतक लघु और महाभाषा अष्टादश विविध प्रकार । सब जीवों ने सुनी दिव्यध्वनि अपने उपादान अनुसार ।। विपुलाचल पर समवशरण का हुआ आज के दिन विस्तार । प्रभु की पावन वाणी सुनकर गूंजा नभ में जय-जयकार ।। जिनेन्द्र अर्चना जन-जन में नव जागृति जागी मिटा जगत का हाहाकार। जियो और जीने दो का जीवन संदेश हुआ साकार ।। धर्म अहिंसा सत्य और अस्तेय मनुज जीवन का सार । ब्रह्मचर्य अपरिग्रह से ही होगा जीव मात्र से प्यार ।। घृणा पाप से करो सदा ही किन्तु नहीं पापी से द्वेष । जीव मात्र को निज-सम समझो यही वीर का था उपदेश ।। इन्द्रभूति गौतम ने गणधर बनकर गूंथी जिनवाणी। इसके द्वारा परमात्मा बन सकता कोई भी प्राणी ।। मेघ गर्जना करती श्री जिनवाणी का वह चला प्रवाह । पाप ताप संताप नष्ट हो गये मोक्ष की जागी चाह ।। प्रथम, करणं, चरणं, द्रव्यं ये अनुयोग बताये चार । निश्चय नय सत्यार्थ बताया, असत्यार्थ सारा व्यवहार ।। तीन लोक षट् द्रव्यमयी है सात तत्त्व की श्रद्धा सार । नव पदार्थ छह लेश्या जानो, पंच महाव्रत उत्तम धार ।। समिति गुप्ति चारित्र पालकर तप संयम धारो अविकार । परम शुद्ध निज आत्मतत्त्व, आश्रय से हो जाओ भव पार ।। उस वाणी को मेरा वंदन उसकी महिमा अपरम्पार । सदा वीर शासन की पावन, परम जयन्ती जय-जयकार ।। वर्धमान अतिवीर वीर की पूजन का है हर्ष अपार । काललब्धि प्रभु मेरी आई, शेष रहा थोड़ा संसार ।। ॐ ह्रीं श्रीं सन्मतिवीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये जयमालापूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा। (दोहा) दिव्यध्वनि प्रभु वीर की देती सौख्य अपार । आत्मज्ञान की शक्ति से, खुले मोक्ष का द्वार ।। (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्) जिनेन्द्र अर्चना 10 0 २०७ 104
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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