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________________ (१६७ ह रि वं श क 155 था यहाँ ज्ञातव्य है कि अभिषेक दूध से नहीं, वरन क्षीरसागर के निर्मल, प्रासुक जल से किया गया था । समुद्र का नाम क्षीरसागर है, क्षीरसागर का जल त्रस जीव रहित स्वच्छ और पवित्र होता है । जिनशासन की प्राप्ति से जिनके प्रशस्त राग का उदय हो रहा था, जिनके शरीर में रोमांच प्रगट हुए थे और जिनका संसार सागर अत्यन्त अल्प रह गया था - ऐसे अन्य समस्त स्वर्गो के इन्द्रों ने भी बड़े संतोष के साथ इच्छानुसार निर्मल जल से बाल तीर्थंकर नेमिकुमार का अभिषेक किया। तत्पश्चात् इन्द्राणियों ने तैल-मर्दन एवं उबटन लगाया। फिर इन्द्रादि सभी देव समूह ने उत्तम वस्त्र, मणिमय आभूषण माला तथा विलेपन से सुशोभित बालक की परिक्रमा दी और नाना प्रकार से उनका स्तवन किया । इन्द्रानियों द्वारा बाल तीर्थंकर के उबटन एवं अभिषेक करने की चर्चा आई है । इस कथन के आधार पर सामान्य स्त्रियों को प्रतिमा का अभिषेक करने का दुराग्रह नहीं पालना चाहिए; क्योंकि प्रथम तो इन्द्राणी एवं मनुष्यनी की शारीरिक शुद्धि - अशुद्धि एक जैसी नहीं होती। दूसरे, बालक का उबटन व अभिषेक और अरहंत प्रतिमा का अभिषेक - दोनों की स्थिति अत्यन्त भिन्न-भिन्न होती है । समोशरण में साक्षात् अरहंत भगवन्तों का अभिषेक तो कभी होता ही नहीं है । मात्र प्रतिष्ठित प्रतिमाओं की वीतराग छवि की स्वच्छता हेतु जलाभिषेक अर्थात् प्रक्षालन ही होता है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में विधिनायक प्रतिमा पर पाँचों | कल्याणकों की विधि की जाती है, उसमें गर्भक्रिया, जन्माभिषेक, आहारदान आदि सभी का खूब हर्षोल्लास | के साथ प्रदर्शन भी होता है और आगमोक्त क्रियायें भी होती हैं । जन्माभिषेक के उपरान्त सौधर्म इन्द्र ने बाल तीर्थंकर अरिष्टनेमि की स्तुति करते हुए कहा - 'हे प्रभो ! आपको जन्म से ही सम्यक्मति, श्रुत और अवधि ज्ञान का विशेष क्षयोपशम है। उसके द्वारा आपने द्वादशांग का सार जाना है। आपने पूर्वभव में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के भेद से त्रिविधता को प्राप्त | रत्नत्रय सहित उग्र तप किया एवं सोलह कारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति का संचय ने मि ना थ का ज न्म क ल्या ण क (१६)
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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