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________________ (९६६) ह रि वं सज्जनों के सखा और लोक मर्यादा को जाननेवाले इन्द्र ने नगर में प्रवेश कर शिवा देवी के महल के | समीप खड़े रहकर इन्द्राणी को नवजात बालक को प्रसूतिगृह से लाने का आदेश दिया । इन्द्राणी प्रसूतिगृह में जाकर वहाँ माँ को मायामयी निद्रा में सुलाकर तथा देवमाया से दूसरा बालक माता के पास सुलाकर | बाल तीर्थंकर नेमि को उठा लाई और इन्द्र को सौंप दिया । इन्द्र ने तीर्थंकर बालक को प्रणाम कर जब गोद में लेकर देखा तो उनके रूप-लावण्य को देखते ही रह गये। बालक की सुन्दर छवि को एक हजार | नेत्र बनाकर देखा तो भी वे तृप्त नहीं हुए। उसकी देखने की उत्कंठा फिर भी बनी ही रही । श 155 क अपने-अपने इन्द्रों सहित चारों निकायों के सुर-असुर आदर के साथ शीघ्र ही आकर बाल तीर्थंकर | की भक्ति से उस नगर की प्रदक्षिणायें देकर उसकी शोभा देखने लगे । था नीलमणि के ऊँचे चूड़ामणी (मुकुट) से सुशोभित इन्द्र बालक नेमि को ऐरावत हाथी पर विराजमान कर सुमेरु पर्वत पर जन्म अभिषेक के लिए ले गये । ऐरावत हाथी वस्तुतः अभियोग जाति का देव होता है, जो इन्द्र की आज्ञा और स्वयं की भक्तिभावना से अपनी विक्रिया से ऐरावत हाथी का रूप धारण करता है; इसकारण उसका रूप सामान्य गजराजों से भिन्न अद्भुत हो तो इसमें आश्चर्य और शंका करने की गुंजाइश नहीं है। शास्त्रों में ऐसे हाथी का वर्णन करते हुए कहा है कि उसके ३२ मुख थे, प्रत्येक मुख में आठ-आठ दांत थे, प्रत्येक दांत पर एक-एक सरोवर था, प्रत्येक सरोवर में एक-एक कमलनी थी, एक-एक कमलनी में बत्तीस-बत्तीस पत्ते थे, एक-एक पत्ते पर एक-एक अप्सरा सरस संगीत के साथ नृत्य कर रही थी। इसप्रकार | लोकोत्तर विभूति के साथ देवगण सुमेरु पर्वत के समीप पहुँचे तथा मेरु की प्रदक्षिणा देकर पाण्डुक नामक विशाल वनखण्ड में प्रविष्ट हुए। वहाँ विशाल पाण्डुकशिला के ऊपर पाँच सौ धनुष ऊँचे सिंहासन पर तीर्थंकर बालक को विराजमान किया और इन्द्र ने देवों के साथ भक्तिपूर्वक देवों द्वारा लाये गये १००८ मणिमय स्वर्ण | कुंभों से क्षीरसागर के जल से बाल तीर्थंकर का जन्माभिषेक किया । ने मि ना थ का ज न्म क ल्या ण क १६
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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